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Thursday, January 01, 2015

नये साल के बहाने…

बुद्धिमान लोगों की यही परेशानी है कि वे खुद को भी अच्छा बेवकूफ बना लेते हैं। बहाने तो ऐसे मायावी जो अपनी सुख सुविधा और आराम के साथ तालमेल बनाये होते हैं। कोई ऐसे प्यारे बहानों को मात्र बहाने मानकर झिड़के भी तो कैसे, जो बहाने आपको ऐसा बेचारा और मेहनत का मारा सा दिखाते हैं कि आपको दया, प्यार, मजा सब कुछ एक साथ आ जाता है।

मैं काफी दिनों से कुछ लिख नहीं रही। मैंने तो अब तक अपना पहला रिसर्च पेपर भी प्रकाशन के लिये नहीँ भेजा और कॉन्फ़रेंस में पढ़ने के लिये भी अन्तिम तारीख के ठीक पहले देर रात तक जागकर कुछ ठीक ठाक सा लिख लेना ही मेरी आदत बन गयी है। योजनाएं और कामों की सूची बनाने का मुझे बडा शौक है। सप्ताह के कामों कि सूची तो रोज ही रिफ़ाइन होती है। अब थोडा और व्यवस्थित होने की जरूरत है। मेरे पास बहानों की भी एक अच्छी सी सूची है, जैसे कि समय नहीं मिलता, मिलता भी है तो वैसा तसल्ली वाला नहीं जिसमें कुछ लिखा जा सके, मूड नहीं अच्छा सा, अच्छे विचार नहीं आ रहे, अभी मेरे पास कोई ऐसी या इतनी सामग्री नहीं जिस पर कुछ दमदार लिखा जा सके या मेरे पास ज्यादा जरूरी काम है वग़ैरह वग़ैरह। वैसे मेरे इन गैरज़रूरी लगने वाले कामों से जी चुराने से मेरे ज्यादा जरूरी कामों को कोई खास फायदा नहीं हो रहा। वर्तमान में जीने वाले मंत्र को बड़ी ही चतुराई से अपनी सुविधानुसार काम में लिया है मैंने। वैसे मुझे ये भी पता है कि इस तरह लम्बे समय तक उस इकलौते काम जो मुझे थोडा बहुत अच्छे से आता है, से दूर रहने और तैयारी व धीरज का भ्रम पाले रहने से किसी सुबह अचानक ही मैं एक चमत्कारिक शोधकर्ता (जो एक बहुत मशहूर लेखक भी हो) बनकर नहीं जागने वाली, बल्कि ऐसे तो मैं भोंट जरूर हो जाऊँगी।


मेरे पास एक बड़ी ही जिद्दी सी, चालाक, सिद्धान्तवादी प्रकार की अन्तरात्मा भी है जो उस सारे वक्त मेरे दिमाग में खटखट करती रहती है जब तक मैं अपने बहानों के सिरहाने के साथ शीतनिद्रा में होती हूँ। वैसे ऐसा नहीं है कि पिछले लम्बे समय से मैंने कोई काम का काम ही नहीं किया है बल्कि कुछ महत्वाकांक्षी काम समय से निपटा कर एक तरह की तसल्ली हासिल कर ली है। लेकिन हर बार ऐसा कुछ करने के बाद इनामस्वरूप मिलने वाले आराम और आजादी का फायदा जरूरत से ज्यादा समय तक उठाया है। हो सकता है ये सब साधारण हो और इतना गलत ना हो लेकिन ज़्यादा सही यही होता कि इन स्वघोषित छुट्टियों में भी मैं कभी कभी कुछ रचनात्मक करना नहीं छोडती। अपने आप के साथ सख्ती करना मेरा कर्तव्य व अधिकार दोनों है।

मेरी अन्तरात्मा फिर मुझे आँखें फ़ाड़कर मुझे देख रही है कि कैसे बेशर्मी से मैं उसके भाषण को अपने नाम से ब्लॉग पर डालकर तारीफ़ें बटोरने का जुगाड़ कर रही हूँ। वो मुझे देखकर सिर भी हिला रही है कि प्रवचनों को व्यवहार में उतारने के बजाये कैसे उनका ही विश्लेषण और विवेचन किया जा रहा है। पर ये भी जरूरी है ना, मैं कुछ तो रचनात्मक कर रही हूँ। और मेरी अन्तरात्मा उस अन्तर्द्वन्द को भी जानती है जिससे मैं कड़े प्रयास के बाद मुक्त हुई हूँ और अब खुद को आश्चर्यचकित, प्रसन्न व भावुक महसूस कर रही हूँ। 

अब इससे पहले कि कुछ गलत हो जाये और ये समझदार सा रूप अवसाद में चला जाये मुझे बहुत कुछ कर लेना चाहिये। इस वक्त चलते रहना ही सुनिश्चित कर सकता है कि बिना अपना नुकसान किये मैं जरूरत के समय, या यूँ ही, रुक सकूँगी, बैठ सकूँगी, आंखें मूँद सकूँगी, मुस्कुरा सकूँगी और रो भी सकूँगी। मुझे जीने के लिये, जीते हुए ही वक्त बचाना है। कुछ गलतियों, कुछ कई असफलताओं, कुछ गैरवाजिब उम्मीदों और बचकाने लगाव ने मेरा दिल भी तोड़ा है लेकिन मैं और परीक्षाओं से गुजरने और सीखने के लिये फिर तैयार हो गई हूँ। फ़िलहाल तो मेरे स्वविवेक ने ही नादान और मुश्किल बन रहे दिल को सम्भाल रखा है।

कई तरह की भावनाओं, मंथन, अनसुलझे सवालों के साथ शुरु हुआ था साल का पहला दिन। प्यार, दोस्ती, परिवार… ये सब कभी दूर तो कभी मेरे साथ नजर आते हैं। एक बार फिर अफसोस कर लिया अपनी भूलों पर, उदास कर लिया दिल कमियों पर, गर्व कर लिया उस पर जो पास है या जो पाया। आँसुओं से धो दिया खूबसूरत गलतफ़हमियों को और मुस्कुरा ली वर्तमान पर। यूँ तो कोई अन्तर नहीं इस दिन में और बाकि दिनों में पर नये साल के बहाने से ही क्या पता दिल संभल जाए और दिमाग ठिकाने आ जाए।