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Friday, September 04, 2015

Happy Teacher's Day - “गुरु का हाथ”

पिसते… घिसते… तराशे जाते…
गिरते… छिलते… लताडे जाते…
मांगते… चाहते… ठुकराए जाते…
गुजर जाते हैं चौबीस या इससे ज्यादा साल…

लगे बचपन से… बहुत लोग फरिश्ते से…
उम्र बढी, आँख खुली, दिल टूटे
मिले हम, मुँह फेरते हर इक रिश्ते से…
बदलते संवरते बिगडते हम साल दर साल…

खोये खुद में और छोड़ा परवाह करना भी…
लगाना उम्मीदें और पीछे बिलखना भी…
जीना सच में और कई परतों में सच को ढंकना भी…
बोझिल हुए सपने, सीखा जीना हर हाल…


एक सूरत माँ सी, एक साया पिता सा…
हर मोड पर मिला कोई अजनबी, नया, अपना सा…
जानते पहचानते नहीं वो मुझे…
फिर भी पहाड़ उनकी उम्मीदों का… लदा है मेरे सिर…
उन्हें नहीं सरोकार, क्या है मेरी मुश्किलें मेरे तूफान…




लेकिन जाने कैसे तोडकर मेरे भ्रमों को…
झकझोरकर मेरे हौसलों को…
कह देते हैं वे, पढे बिना ही मेरे मन को
बेटी, पा लेना आसमान…कभी नहीं था आसान…

नहीं सुनते वे शिकायतें… कि पत्थर हैं वे भी,
मेरे माँ पिता जैसे ही
और बनाना चाहते हैं सख्त मुझे भी…
लेकिन घबराहटों से मेरी… हो नहीं सकते वे इतने अनजान

बहुत ऊँचे देख लिये हैं सपने…
चोट खाया मेरा बागी मन…
कुछ आगे के… नये जमाने के, हैं मेरे ख्याल…
हो गयी है दुनिया से अनबन…
भरोसा हूँ, फिर भी किसी का… छू लूंगी आसमान…

रहें चुप सिवाय डाँटने के…
चाहे सुने ना सुने वे मेरी बात…
फिर भी अपने सिर पर बरबस…
पाकर अपने गुरु का हाथ…
हुए, उठ खडे, फिर मेरे अरमान...


 ...To all my teachers... especially my Research Supervisor Dr. Indu Yadav. :)


Friday, May 22, 2015

'मेरा प्यारा पहाड़'

पहाड़… कितने स्थिर दिखते हैं… लेकिन उनमें बहुत कुछ बदलता रहता है… साल दर साल… सदियों के दौरान। लेकिन फिर भी प्रकृति के ये स्तम्भ, हमें अपनी सबसे पुरानी यादों से जोडे रखते हैं। पंद्रह साल पहले जब अजमेर आकर बसे थे तो इस पहाड़ के सामने ये घर बनाया था। सामान्यत: पहाडों से बर्फ याद आती है लेकिन ये गर्म रेगिस्तान का पहाड़ है, हमेशा धीर गम्भीर बना रहता है बस सावन में मुस्कुराता है। और ये तेज हवा जो चल रही है आज… ये भी कैसी पुरानी राजदार मूडी सखी की तरह है। क्या ये आज भी उन्हीं अणुओं की बनी है जिनसे पाँच या दस साल पहले बनी थी? इन सालों में कितने आगे चली आई हूँ मैं। थोडे समय में ज्यादा दूरी तय की है। लेकिन ये पहाड़ ये हवा, मेरे साथ बदलते हुए भी बिल्कुल पहले जैसे मेरे साथ हैं और मैं इनके पास अपनी छत पर खडी हूँ। ये छत भी पहले इतनी ऊँची नहीं थी। घर कैसे धीरे धीरे बडा हुआ है, पहले एक कमरा और बगीचा, फिर कमरे बढते गये उनकी सजावट बदलती गयी, बगीचा भी फलों और फूलों से सजता गया। जिन्दगी के बहुत से पाठ मैंने इससे सीखे जिसे मम्मी ने इतने प्यार और मेहनत से संवारा, जिन्दा रखा। पहली मंजिल के पूरे होने के बाद फिर दूसरी मंजिल पर एक एक कर कमरे बने और सबसे आखिर में बनी मेरी सबसे पसंदीदा ये छत जिस पर मैं खडी हूँ। कितना सब कुछ हुआ है यहाँ आने के इन सिर्फ पंद्रह सालों में। छोटे रवि की तो कुल उमर है ये। समय इतना तेज चला है कि प्रतीक जिसकी जिन्दगी ठहरी सी लगती है वो भी बहुत धीरे ही सही लेकिन बदला है, संभला है। मेरे बचपन का साथी, मेरी खुशियों की वजह, मेरे दिल का दर्द, चाहे अब बीस साल का हो गया है लेकिन वहीं नन्हा मासूम सा बच्चा है जो रवि से जरा भी बड़ा नहीं दिखता। मम्मी पापा, वो भी तो कितना बदले हैं, सीखे हैं, संवरे हैं साथ साथ, ये साम्राज्य उन्हीं का तो है।

क्या मैं वैसी ही हूँ? मन में झाँकती हूँ तो मुश्किल से नौ साल की एक लडकी दिखायी देती है। चुप चुप खोयी हुई सी या दुनिया जहान की बहुत सी बातें करने वाली। अपने परिवार अपने भाई को लेकर उसके सपने, दुनिया को ‘ठीक’ कर देने के उसके निश्चय और एक दिन बहुत मशहूर हो जाने की उसके मन की आग। बहुत बार वो पहाडों में भी खो जाना चाहती थी, गुमनाम, अध्यात्म की राह पर, लेकिन लौट आती थी अपनी कल्पनाओं से क्योंकि जरुरत है इस दुनिया को उसकी। ईश्वर को खोजने वो फिर कभी निकल सकती है। फिर मम्मी पापा भी तो डाँट देते हैं जब टीवी पर ॐ नम: शिवाय देखते हुए वह भी तपस्या में लीन होने की कोशिश करती थी। फिर उसका मन भटकता भी तो कितना है। उसे एक दिन प्यार भी करना है, हालांकि बिल्कुल खूबसूरत और प्यारी नहीं लगती वो किसी को स्कूल में। बस हड्डियों का ढाँचा जो बहुत गोरी भी नहीं और जिसके चेहरे पे ये बडा सा तिल है। वो तो कभी टॉप भी नहीं करती लेकिन हमेशा आगे की पंक्ति में बैठना ही उसे पसंद है, लम्बाई भी तो कम है उसकी। उसे दूसरी छोटी बचचियों की तरह प्यारी प्यारी बेवकूफी भरी बातें करना और बात बात पर खिलखिलाना पसंद नही। उसे या तो बहुत सूक्ष्म या बहुत बडी बड़ी बातें करना पसंद है। शायद इसलिये उसे कोई प्यार नहीं करता। लेकिन एक दिन तो वो बहुत लोकप्रिय होने ही वाली है।
 सी लडकी ने जब ये पहाड़ पहली बार देखा तो नहीं जानती थी कि उसकी हर एक याद को वो अपने में इस तरह सहेज लेगा, उसे खुद से जोड़े रखेगा। अजमेर आते ही जिन्दगी बदल सी गयी, बदली क्या उसे तो मानो ये सब पहले ही पता था, फिर भी यकीन करने में वक्त लग गया। उस नौ साल की उमर में ही, अपने पापा के विश्वास के चलते, मम्मी के स्नेह और अपने चुनौतियों को बहुत मामूली समझने की आदत के चलते जब दसवीं का इम्तहान पास कर लिया तो मानो दुनिया ने उसे सिर पर चढा लिया। पता नहीं प्यार किया या नहींl लेकिन वह एक कौतूहल की चीज़ जरूर हो गयी। अच्छा है कि ये सब उसके सिर पर नहीं चढा लोग तो फिर भी कह देते हैं, लडकी अभिमानी है, उनकी इस मान्यता के आगे हार मान ली उसने। जो जानने लगते हैं कम से कम वो तो उसे चाहते हैं।




तब से आज तक कितनी दूर चल कर आ गयी हूँ मैं और कितनी तेजी से। मेरी रफ्तार मानो बढती से ही जा रही है। जब नहीं सम्भाल सकी, रुक कर सम्भल भी गयी हूँ। कितने सारे लोगों से मिल ली हूँ मैं ,कितनों के दिल में बस गयी और कितने ही मेरे दिल में रहने लगे। उपलब्धियाँ जुटाये जा रही हूँ और ठोकरों को मैं गिनना नहीं चाहती। बहुत बार क्रूर बनी हूँ, बहुत बार लोगों ने निराश किया है मुझे और मैंने अपना दिल तोडा है। इस तरह कितनी अलग अलग तरह के और उमर के लोग अलग अलग कारणों अलग अलग जगहों से मेरे दोस्त बने है। कई दूर भी चले गये हैं, बहुत याद भी आते है और कभी कभी कहीं मिल भी जाते हैं। दिल के तार अब इन्टरनेट की तरंगों से भी जुड गये हैं। इतने सब लोगों के साथ भी मेरे अकेलेपन को इस पहाड़ ने देखा है। प्यार को जागते हुए भी देखा है और जब जब मैं मायूस हुई हूँ मुझे ये सब कुछ याद भी दिलाया है। मुझे इस तेज हवाओं वाली सुबह ये अहसास हुआ है कि इस पहाड़, छत पर मेरी इस जगह से कितना प्यार करती हूँ मैं और मेरी जिन्दगी में और जितने भी लोग हैं, उन सभी से।



   

Friday, March 20, 2015

मम्मी का पहला हेयर कट..

मेरी मम्मी ने आज पहली बार प्रॉपर हेयर कट करवाया… घर पर ट्रिमिंग वगैरह तो होता रहा है पर आज प्रोफ़ेशनल हाथ लगे हैं मम्मी की ज़ुल्फ़ों को। आज जन शिक्षण संस्थान के प्रशिक्षकों के लिये रखे गये रिफ़्रेशर कोर्स का तीसरा दिन था, जहाँ ये ‘प्रयोग’ हुआ। मैं बहुत खुश हूँ। मुझे याद है कुछ सालभर पहले से ही मम्मी ने धूप में जाते हुए समरकोट और स्कार्फ़ पहनना अपनाया है, उस दिन मैं मुग्ध होकर मम्मी को देख रही थी और हिचकिचाकर मम्मी ने कहा था, ‘धूप है न, स्किन पर निशान हो जाते हैं…’ (क्यूट लग रही थी गाँव की ‘साँवली’, किसान की बेटी ये कहते हुए।) और र्मैने कहा था कि ‘अपना खयाल रखना तो मम्मी, सबसे पहली, ज़रूरी और प्यारी चीज़ होती है। अच्छा है समय और ज़रुरत के साथ बदलना।‘ लेकिन मैं समझ रही थी मम्मी का टिपिकल ‘माँ’ जैसा मन, जिसके लिये अपना खयाल करना सबसे अन्तिम बात होती है, और आसान नहीं होता है कुछ हटकर करना, खासकर जिस तरह की पृष्टभूमि से हमने अपनी यात्रा शुरु की है।
मम्मी का नया हेयर कट… और खुश खुश पापा :)

उसी साड़ी में, कैसी लगी थी मैं दो महीने पहले।

मेरी मम्मी नौकरी नहीं करतीं… पर बहुत कुछ करतीं हैं। सबके लिये… अपनी संतुष्टि के लिये… महिलाओं की बेहतर स्तिथि के लिये, उनकी पहचान के लिये, उनके परिवारों में उनके ‘सुख’ के लिये। इतनी ऊर्ज़ा, प्रतिभा और जुझारुपन आखिर दबा भी तो कैसे रह सकता है। हालाँकि स्थापित सामाजिक ढकोसलों का सीधा विरोध उन्होंने नहीं किया बल्कि उन्हें ही सीढ़ी बनाकर आगे बढ़ती रहीं। साबित कर दिया कि कर तो दुनिया के मापदंडों के अनुसार भी सबकुछ कर कर सकती हूँ लेकिन फ़िर भी अपने विचारों भी कायम हूँ। आहिस्ते से चीज़ें बदलने में, दिलों को जीतने में विश्वास रखती हैं वे। और दिल की इतनी साफ़ और मासूम कि बस प्यार की खातिर अपना सबकुछ जीता हुआ हार जाएं। मैंने हर फ़ेज़ में देखा है मम्मी को… बढ़ते हुए और हमें आगे बढ़ाते हुए। थमते हुए और घबराते हुए भी देखा है, क्योंकि प्यार, सम्मान और स्वीकृति ही उनकी निधि है। मेरे पापा भी बहुत अच्छे, सरल लेकिन प्रगतिशील विचारों वाले और ऊर्जा से भरे हुए हैं पर मुझे लगता है उन दोनों ने ही एक दूसरे को ऐसा अच्छा बनाया है। दोनों ने बहुत धैर्य से वो चीज़ें बदली हैं जो बुरी लगी। बहुत संघर्षों और समाज के नकारात्मक हस्तक्षेप के बाद एक दूसरे का विश्वास और प्रेम जीता है और प्रगति के साथी बने हैं। अकेले चलना वैसे भी मम्मी का स्वभाव नहीं, हालाँकि ऐसी क्षमता बहुत है। किन्तु प्यार और स्वाभिमान से बढ़कर कुछ नहीं उनके लिये। और धन संपत्ति से तो चाहे उन्हें पूरा लाद दिया जाये (हालाँकि गहने तो पसंद है उन्हें)… वो तो बस यही मनाती रहती हैं कि इतना कुछ सम्भालूंगी कैसे मैं, भगवान! (बहुत आस्तिक है:))
'जस्ट मैरिड'

'बेस्टीज़'
मम्मी को इतनी सारी और ऐसी ऐसी चीज़ें करनी और बनानी आती हैं जो मुझे लगता है किसी और के लिये सम्भव ही नहीं है। वे सीखती रहीं हैं, पढ़ती रही हैं और सिखाती रहीं हैं। उन्नीस साल की उम्र में ही मम्मी की गोद में मेरे आ जाने के बाद भी। प्रतीक की स्थिति (ऑटिस्म) ने उन्हें बहुत तोड़ने की कोशिश की… रवि के जन्म ने उन्हें संबल लिया… जो उन्हीं की ज़िद थी… समाज में वह स्वीकृति दिलायी जो वे चाहती थी (एक स्वस्थ लड़के की माँ होने का ओहदा)। उन सब मुश्किलों दिनों में ही मम्मी ने डिप्लोमा किया, गार्मेंट मेकिग और डिज़ाइनिंग में। अब इस उम्र में जब वे संतुष्ट होने लगती है तो मैं उन्हें होने नहीं देती। मासूम होने के साथ साथ ज़रा लापरवाह भी हैं, वही कम्फ़र्ट जोन में रहने वाली बात है। पर उन्हें अब भी बहुत सी मान्यताओं को गलत साबित करना है… वर्जनांए तोड़नी है… आगे बढ़ना है। कल रात ही मैं नाराज़ हो रही थी जब उन्होंने खुद कुछ लिखने में अरुचि दिखायी और फ़िर वर्तनी की बहुत सी गलतियाँ की। अब हर काम बच्चों से करवा लेने से ये नुकसान तो होता है न! 

अपना परिवार और बच्चे उन्हें दुनिया में सबसे प्यारे हैं और मेरे लिये उनके ढेर सारे सपने हैं। बहुत सी चीज़ों पर हमारे विचार अलग भी हैं लेकिन वही मेरी आदर्श हैं, हाँ मेरे जैसी हर सदियों से चल रही बात पर सवाल उठाने वाली लड़की की।

आज नये हेयर कट में मम्मी बहुत युवा लग रही थी… बिल्कुल वैसी जैसा उनका मन है… निश्छल। उनकी हल्की भूरी आँखें हालाँकि उनके गेहुँए रंग के कारण ज़्यादा नोटिस में नहीं आतीं… लेकिन हम उनके पार देख सकते हैं।  

Thursday, March 05, 2015

'मेरा मन उचट गया है त्यौहारों से'

मेरा मन उचट गया है त्यौहारों से… मेरे कान फ़ट चुके हैं सवेरे से लाउड वाहियत गाने सुनकर और फ़ुर्र हो चुका है गर्व। ये कौनसा रंग है मेरे देश का? बिल्कुल ऐसा ही गणपति विसर्जन के दिन भी महसूस किया था मैंने। जब बचते बचाते गाड़ी चलाते हुए भी करीब एक किलो सा गुलाल मेरे चेहरे पर आकर पड़ा था और स्कार्फ़, चश्मे और हेल्मेट से ढके होने के बावजूद भी आँखों, नाक और गले में जा घुसा था…आँखें तो आँसुओं से धुल गयी थी लेकिन मन तक पहुँच चुकी कड़वाहट नहीं गयी।

मुझे तो कोई उत्साह कोई खुशी कोई उम्मीद नहीं है इन 'रंगीले' त्यौहारों से। ना मुझे आस्तिक होने का कोई सर्टीफ़िकेट चाहिये… मेरे लिये आस्था वो है जब अपने ही उन्माद में धुत्त होने के बजाए सभी की सुविधाओं का खयाल रखा जाए… एक दूसरे की मदद की जाए… प्यार और संवेदनशीलता दिखायी जाए। बताइये, क्या ऐसे खुश होते हैं भगवान?

इस पर हिन्दू धर्म के कुछ ठेकेदार कहते हैं कि होली पूरे मन से खेलें… भारतीय संस्कृति की रक्षा करें और खूब पानी बर्बाद करें, चाहे देश के किसी कोने में लोग पीने के पानी को तरस ही क्यों ना रहें हों।

बचपन से जो छवि थी मन में त्यौहारों की… अब जाने कहाँ है… त्यौहार का वैसा ही निश्छल प्रेम भरा स्वरूप कहाँ है? पकवानों की खुशबू और अपनों से मिलने, आशिर्वाद लेने का अवसर होते हैं न त्यौहार तो? अपराधिक प्रवृतियों को कैसे अवसर मिल जाता है? और कहाँ से आये हैं ये लोग? क्यों नहीं आपत्ति दर्ज़ कराते हम त्यौहारों के नाम पर होने वाले हर आपत्तिजनक व्यवहार पर? क्या मतलब है इस बात का कि आज तो त्यौहार है आज कर लेने दो मन की? बड़ों का इतना भी फ़र्ज़ नहीं कि कम से कम अपने बच्चों को समझा दें कि पड़ोस में कोई बीमार हो सकता है, किसी की परीक्षा हो सकती है या नाईट ड्यूटी, ज़रा सा वॉल्यूम तो कम कर लो। और ज़रूरत क्या है गली गली हर बार होलिका जलाने की? "बुराई" को अपने मन में जलांए… प्रदूषण से पृथ्वी को ना झुलसाएं ना सदियों पहले जलाई गयी एक औरत के दहन पर खुशी से पागल हो जाएं!

मैं सिर्फ़ अच्छे स्वास्थ की कामना करती हूँ इस त्यौहार पर…स्वस्थ मानसिकता की… स्वच्छ पर्यावरण की।

Wednesday, March 04, 2015

'भटकन'

मुझे ये सोच सरासर गलत लगती है कि लड़कियाँ, लड़कों के जीवन में भटकाव पैदा करती हैं। और इस लड़कियों का चक्कर पद से तो मुझे सख्त नफ़रत है। ( वैसे क्रिकेटर्स का अपनी पत्नी या गर्लफ़्रैण्ड को साथ ले जाने पर रोक के पीछे आखिर क्या तर्क है, मैं समझी नहीं।) 



वैसे आसान है ना, नाकामयाब तो अपनी कमज़ोर इच्छाशक्ति और निकम्मेपन के कारण होना और दोष किसी और के सिर मढ़ देना। 

मुझे तो इसका उल्टा सत्य लगता है, किसी लड़के के जीवन में आते ही लड़कियाँ अपना करियर, स्वास्थ्य का ख्याल, अपने विचारों, इच्छाओं का सम्मान करना, अपने परिवार (पीहर पक्ष) का खयाल करना (लायक बनकर भावनात्मक व आर्थिक सहयोग देना), अपने सारे सपने, सबकुछ भूला देती हैं या भूल जाने को मज़बूर हो जाती हैं। कुछ लड़कियाँ किसी आदमी के ज़िन्दगी में होने के विचार से ही इतनी निश्चिंत और सुरक्षित महसूस करती हैं कि अपने लिये सोचना व काम करना ही बंद कर देती हैं और ऐसे अपना जीवन उसके हाथों में सौंप देती हैं कि दुर्भाग्यवश यदि वह आदमी (जो उनकी पूरी दुनिया है, जो उनके सारे फ़ैसले लेता है, उन्हें बाहर की ज़ालिम दुनिया से सुरक्षित रखता है और उनकी ज़रूरतें पूरी करता है) उन्हें किसी भी कारणवश ‘छोड़’ दे तो बिल्कुल असहाय हो जाएंगी। क्योंकि वे भावनात्मक रूप से उस पर निर्भर थीं, क्योंकि उन्होंने उसके भरोसे अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ दी थी, अपने दोस्तों से सम्पर्क तोड़ दिया था और उनके पास काम करने और अकेले गुज़ारा करने का कोई अनुभव नहीं। ये स्थिति और भी बुरी होती है अगर इन लड़कियों/ महिलाओं के पास एक या अधिक बच्चे भी हों जिनके होने के निर्णय में भले उनका हाथ हो या ना हो, पालने और संस्कार देने की जिम्मेदारी केवल उन्हीं की होती है । 


इससे अलग कुछ तभी संभव होता है जब लड़का समझदार हो और लड़की जागरूक व रिबेल। इस सबके बाद भी लड़कियों को अक्सर क्रेडिट कम और तोहमत ही ज़्यादा मिलती है। 
मेरे विचार से सच्चा प्रेम तो केवल उठना ही सिखाता है, गिरते तो लोग अपनी कमज़ोरियों और बेवकूफ़ियों की वजह से है। (शायद संत वैलेंटाइन का मूल संदेश भी यही था।) 
इसलिये ना तो लड़कियों का चक्कर बेकार है ना लड़कों का लफ़ड़ा… सिर्फ़ आपकी सोच बेकार है अगर वो आपका ध्यान आपके लक्ष्य पर केंद्रित नहीं रहने देती। 
जरूरी है किसी के साथ अपनी ज़िंदगी बाँटने को तैयार होने से पहले आपकी अपनी कोई ज़िंदगी हो, जो आपने अपने दम पर बनायी हो।


Thursday, January 01, 2015

नये साल के बहाने…

बुद्धिमान लोगों की यही परेशानी है कि वे खुद को भी अच्छा बेवकूफ बना लेते हैं। बहाने तो ऐसे मायावी जो अपनी सुख सुविधा और आराम के साथ तालमेल बनाये होते हैं। कोई ऐसे प्यारे बहानों को मात्र बहाने मानकर झिड़के भी तो कैसे, जो बहाने आपको ऐसा बेचारा और मेहनत का मारा सा दिखाते हैं कि आपको दया, प्यार, मजा सब कुछ एक साथ आ जाता है।

मैं काफी दिनों से कुछ लिख नहीं रही। मैंने तो अब तक अपना पहला रिसर्च पेपर भी प्रकाशन के लिये नहीँ भेजा और कॉन्फ़रेंस में पढ़ने के लिये भी अन्तिम तारीख के ठीक पहले देर रात तक जागकर कुछ ठीक ठाक सा लिख लेना ही मेरी आदत बन गयी है। योजनाएं और कामों की सूची बनाने का मुझे बडा शौक है। सप्ताह के कामों कि सूची तो रोज ही रिफ़ाइन होती है। अब थोडा और व्यवस्थित होने की जरूरत है। मेरे पास बहानों की भी एक अच्छी सी सूची है, जैसे कि समय नहीं मिलता, मिलता भी है तो वैसा तसल्ली वाला नहीं जिसमें कुछ लिखा जा सके, मूड नहीं अच्छा सा, अच्छे विचार नहीं आ रहे, अभी मेरे पास कोई ऐसी या इतनी सामग्री नहीं जिस पर कुछ दमदार लिखा जा सके या मेरे पास ज्यादा जरूरी काम है वग़ैरह वग़ैरह। वैसे मेरे इन गैरज़रूरी लगने वाले कामों से जी चुराने से मेरे ज्यादा जरूरी कामों को कोई खास फायदा नहीं हो रहा। वर्तमान में जीने वाले मंत्र को बड़ी ही चतुराई से अपनी सुविधानुसार काम में लिया है मैंने। वैसे मुझे ये भी पता है कि इस तरह लम्बे समय तक उस इकलौते काम जो मुझे थोडा बहुत अच्छे से आता है, से दूर रहने और तैयारी व धीरज का भ्रम पाले रहने से किसी सुबह अचानक ही मैं एक चमत्कारिक शोधकर्ता (जो एक बहुत मशहूर लेखक भी हो) बनकर नहीं जागने वाली, बल्कि ऐसे तो मैं भोंट जरूर हो जाऊँगी।


मेरे पास एक बड़ी ही जिद्दी सी, चालाक, सिद्धान्तवादी प्रकार की अन्तरात्मा भी है जो उस सारे वक्त मेरे दिमाग में खटखट करती रहती है जब तक मैं अपने बहानों के सिरहाने के साथ शीतनिद्रा में होती हूँ। वैसे ऐसा नहीं है कि पिछले लम्बे समय से मैंने कोई काम का काम ही नहीं किया है बल्कि कुछ महत्वाकांक्षी काम समय से निपटा कर एक तरह की तसल्ली हासिल कर ली है। लेकिन हर बार ऐसा कुछ करने के बाद इनामस्वरूप मिलने वाले आराम और आजादी का फायदा जरूरत से ज्यादा समय तक उठाया है। हो सकता है ये सब साधारण हो और इतना गलत ना हो लेकिन ज़्यादा सही यही होता कि इन स्वघोषित छुट्टियों में भी मैं कभी कभी कुछ रचनात्मक करना नहीं छोडती। अपने आप के साथ सख्ती करना मेरा कर्तव्य व अधिकार दोनों है।

मेरी अन्तरात्मा फिर मुझे आँखें फ़ाड़कर मुझे देख रही है कि कैसे बेशर्मी से मैं उसके भाषण को अपने नाम से ब्लॉग पर डालकर तारीफ़ें बटोरने का जुगाड़ कर रही हूँ। वो मुझे देखकर सिर भी हिला रही है कि प्रवचनों को व्यवहार में उतारने के बजाये कैसे उनका ही विश्लेषण और विवेचन किया जा रहा है। पर ये भी जरूरी है ना, मैं कुछ तो रचनात्मक कर रही हूँ। और मेरी अन्तरात्मा उस अन्तर्द्वन्द को भी जानती है जिससे मैं कड़े प्रयास के बाद मुक्त हुई हूँ और अब खुद को आश्चर्यचकित, प्रसन्न व भावुक महसूस कर रही हूँ। 

अब इससे पहले कि कुछ गलत हो जाये और ये समझदार सा रूप अवसाद में चला जाये मुझे बहुत कुछ कर लेना चाहिये। इस वक्त चलते रहना ही सुनिश्चित कर सकता है कि बिना अपना नुकसान किये मैं जरूरत के समय, या यूँ ही, रुक सकूँगी, बैठ सकूँगी, आंखें मूँद सकूँगी, मुस्कुरा सकूँगी और रो भी सकूँगी। मुझे जीने के लिये, जीते हुए ही वक्त बचाना है। कुछ गलतियों, कुछ कई असफलताओं, कुछ गैरवाजिब उम्मीदों और बचकाने लगाव ने मेरा दिल भी तोड़ा है लेकिन मैं और परीक्षाओं से गुजरने और सीखने के लिये फिर तैयार हो गई हूँ। फ़िलहाल तो मेरे स्वविवेक ने ही नादान और मुश्किल बन रहे दिल को सम्भाल रखा है।

कई तरह की भावनाओं, मंथन, अनसुलझे सवालों के साथ शुरु हुआ था साल का पहला दिन। प्यार, दोस्ती, परिवार… ये सब कभी दूर तो कभी मेरे साथ नजर आते हैं। एक बार फिर अफसोस कर लिया अपनी भूलों पर, उदास कर लिया दिल कमियों पर, गर्व कर लिया उस पर जो पास है या जो पाया। आँसुओं से धो दिया खूबसूरत गलतफ़हमियों को और मुस्कुरा ली वर्तमान पर। यूँ तो कोई अन्तर नहीं इस दिन में और बाकि दिनों में पर नये साल के बहाने से ही क्या पता दिल संभल जाए और दिमाग ठिकाने आ जाए।
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