पिसते… घिसते… तराशे जाते…
गिरते… छिलते… लताडे जाते…
मांगते… चाहते… ठुकराए जाते…
गुजर जाते हैं चौबीस या इससे ज्यादा साल…
लगे बचपन से… बहुत लोग फरिश्ते से…
उम्र बढी, आँख खुली, दिल टूटे
मिले हम, मुँह फेरते हर इक रिश्ते से…
बदलते संवरते बिगडते हम साल दर साल…
खोये खुद में और छोड़ा परवाह करना भी…
लगाना उम्मीदें और पीछे बिलखना भी…
जीना सच में और कई परतों में सच को ढंकना भी…
बोझिल हुए सपने, सीखा जीना हर हाल…
एक सूरत माँ सी, एक साया पिता सा…
हर मोड पर मिला कोई अजनबी, नया, अपना सा…
जानते पहचानते नहीं वो मुझे…
फिर भी पहाड़ उनकी उम्मीदों का… लदा है मेरे सिर…
उन्हें नहीं सरोकार, क्या है मेरी मुश्किलें
मेरे तूफान…
लेकिन जाने कैसे तोडकर मेरे भ्रमों को…
झकझोरकर मेरे हौसलों को…
कह देते हैं वे, पढे बिना ही मेरे मन को
बेटी, पा लेना आसमान…कभी
नहीं था आसान…
नहीं सुनते वे शिकायतें… कि पत्थर हैं वे भी,
मेरे माँ पिता जैसे ही
और बनाना चाहते हैं सख्त मुझे भी…
लेकिन घबराहटों से मेरी… हो नहीं सकते वे इतने
अनजान
बहुत ऊँचे देख लिये हैं सपने…
चोट खाया मेरा बागी मन…
कुछ आगे के… नये जमाने के, हैं मेरे ख्याल…
हो गयी है दुनिया से अनबन…
भरोसा हूँ, फिर भी किसी का… छू लूंगी आसमान…
रहें चुप सिवाय डाँटने के…
चाहे सुने ना सुने वे मेरी बात…
फिर भी अपने सिर पर बरबस…
पाकर अपने गुरु का हाथ…
हुए, उठ खडे, फिर मेरे
अरमान...
...To all my teachers... especially my Research Supervisor Dr. Indu Yadav. :)