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Thursday, March 05, 2015

'मेरा मन उचट गया है त्यौहारों से'

मेरा मन उचट गया है त्यौहारों से… मेरे कान फ़ट चुके हैं सवेरे से लाउड वाहियत गाने सुनकर और फ़ुर्र हो चुका है गर्व। ये कौनसा रंग है मेरे देश का? बिल्कुल ऐसा ही गणपति विसर्जन के दिन भी महसूस किया था मैंने। जब बचते बचाते गाड़ी चलाते हुए भी करीब एक किलो सा गुलाल मेरे चेहरे पर आकर पड़ा था और स्कार्फ़, चश्मे और हेल्मेट से ढके होने के बावजूद भी आँखों, नाक और गले में जा घुसा था…आँखें तो आँसुओं से धुल गयी थी लेकिन मन तक पहुँच चुकी कड़वाहट नहीं गयी।

मुझे तो कोई उत्साह कोई खुशी कोई उम्मीद नहीं है इन 'रंगीले' त्यौहारों से। ना मुझे आस्तिक होने का कोई सर्टीफ़िकेट चाहिये… मेरे लिये आस्था वो है जब अपने ही उन्माद में धुत्त होने के बजाए सभी की सुविधाओं का खयाल रखा जाए… एक दूसरे की मदद की जाए… प्यार और संवेदनशीलता दिखायी जाए। बताइये, क्या ऐसे खुश होते हैं भगवान?

इस पर हिन्दू धर्म के कुछ ठेकेदार कहते हैं कि होली पूरे मन से खेलें… भारतीय संस्कृति की रक्षा करें और खूब पानी बर्बाद करें, चाहे देश के किसी कोने में लोग पीने के पानी को तरस ही क्यों ना रहें हों।

बचपन से जो छवि थी मन में त्यौहारों की… अब जाने कहाँ है… त्यौहार का वैसा ही निश्छल प्रेम भरा स्वरूप कहाँ है? पकवानों की खुशबू और अपनों से मिलने, आशिर्वाद लेने का अवसर होते हैं न त्यौहार तो? अपराधिक प्रवृतियों को कैसे अवसर मिल जाता है? और कहाँ से आये हैं ये लोग? क्यों नहीं आपत्ति दर्ज़ कराते हम त्यौहारों के नाम पर होने वाले हर आपत्तिजनक व्यवहार पर? क्या मतलब है इस बात का कि आज तो त्यौहार है आज कर लेने दो मन की? बड़ों का इतना भी फ़र्ज़ नहीं कि कम से कम अपने बच्चों को समझा दें कि पड़ोस में कोई बीमार हो सकता है, किसी की परीक्षा हो सकती है या नाईट ड्यूटी, ज़रा सा वॉल्यूम तो कम कर लो। और ज़रूरत क्या है गली गली हर बार होलिका जलाने की? "बुराई" को अपने मन में जलांए… प्रदूषण से पृथ्वी को ना झुलसाएं ना सदियों पहले जलाई गयी एक औरत के दहन पर खुशी से पागल हो जाएं!

मैं सिर्फ़ अच्छे स्वास्थ की कामना करती हूँ इस त्यौहार पर…स्वस्थ मानसिकता की… स्वच्छ पर्यावरण की।

Wednesday, March 04, 2015

'भटकन'

मुझे ये सोच सरासर गलत लगती है कि लड़कियाँ, लड़कों के जीवन में भटकाव पैदा करती हैं। और इस लड़कियों का चक्कर पद से तो मुझे सख्त नफ़रत है। ( वैसे क्रिकेटर्स का अपनी पत्नी या गर्लफ़्रैण्ड को साथ ले जाने पर रोक के पीछे आखिर क्या तर्क है, मैं समझी नहीं।) 



वैसे आसान है ना, नाकामयाब तो अपनी कमज़ोर इच्छाशक्ति और निकम्मेपन के कारण होना और दोष किसी और के सिर मढ़ देना। 

मुझे तो इसका उल्टा सत्य लगता है, किसी लड़के के जीवन में आते ही लड़कियाँ अपना करियर, स्वास्थ्य का ख्याल, अपने विचारों, इच्छाओं का सम्मान करना, अपने परिवार (पीहर पक्ष) का खयाल करना (लायक बनकर भावनात्मक व आर्थिक सहयोग देना), अपने सारे सपने, सबकुछ भूला देती हैं या भूल जाने को मज़बूर हो जाती हैं। कुछ लड़कियाँ किसी आदमी के ज़िन्दगी में होने के विचार से ही इतनी निश्चिंत और सुरक्षित महसूस करती हैं कि अपने लिये सोचना व काम करना ही बंद कर देती हैं और ऐसे अपना जीवन उसके हाथों में सौंप देती हैं कि दुर्भाग्यवश यदि वह आदमी (जो उनकी पूरी दुनिया है, जो उनके सारे फ़ैसले लेता है, उन्हें बाहर की ज़ालिम दुनिया से सुरक्षित रखता है और उनकी ज़रूरतें पूरी करता है) उन्हें किसी भी कारणवश ‘छोड़’ दे तो बिल्कुल असहाय हो जाएंगी। क्योंकि वे भावनात्मक रूप से उस पर निर्भर थीं, क्योंकि उन्होंने उसके भरोसे अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ दी थी, अपने दोस्तों से सम्पर्क तोड़ दिया था और उनके पास काम करने और अकेले गुज़ारा करने का कोई अनुभव नहीं। ये स्थिति और भी बुरी होती है अगर इन लड़कियों/ महिलाओं के पास एक या अधिक बच्चे भी हों जिनके होने के निर्णय में भले उनका हाथ हो या ना हो, पालने और संस्कार देने की जिम्मेदारी केवल उन्हीं की होती है । 


इससे अलग कुछ तभी संभव होता है जब लड़का समझदार हो और लड़की जागरूक व रिबेल। इस सबके बाद भी लड़कियों को अक्सर क्रेडिट कम और तोहमत ही ज़्यादा मिलती है। 
मेरे विचार से सच्चा प्रेम तो केवल उठना ही सिखाता है, गिरते तो लोग अपनी कमज़ोरियों और बेवकूफ़ियों की वजह से है। (शायद संत वैलेंटाइन का मूल संदेश भी यही था।) 
इसलिये ना तो लड़कियों का चक्कर बेकार है ना लड़कों का लफ़ड़ा… सिर्फ़ आपकी सोच बेकार है अगर वो आपका ध्यान आपके लक्ष्य पर केंद्रित नहीं रहने देती। 
जरूरी है किसी के साथ अपनी ज़िंदगी बाँटने को तैयार होने से पहले आपकी अपनी कोई ज़िंदगी हो, जो आपने अपने दम पर बनायी हो।


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