Pages

Sunday, August 16, 2009

'प्रतिभा'

'प्रतिभा'

वह शांत थी अनजान थी
और उससे भी अधिक गुमनाम थी
घनघोर अँधेरे में रोशनी का एक कतरा गया
उसे जगाया गया, सहलाया गया
पर संकोच की परतों में वह, ढंकी रही, छिपी रही
पहचान तो गयी खुद को, पर सबकी नजरों से बची रही
ठहर ठहर के उसे ललकारा और उभारा गया
आ दिखा जौहर अपना, कहकर उसे पुकारा गया
मान अटल इस पुकार को, कठिन साधना से निखरी
ओजस्वी उसका आत्मबल, किरणें जिसकी बिखरी
आखिर जम कर चमकी गगन में, नजरो में उसकी कौंध चुभी
वो तो नहाई रोशनी में, औरों को उसकी चकाचौंध चुभी
लेकर आड़ खुबसूरत परन्तु खोखली बातों की, दुहाई दी, फुसलाया और डराया भी
बनी रही जब हठी तनिक वह, ज़रा उसे बहलाया भी
चकित हुई दोहरे बर्ताव से, हताश हुई, दुःख की हुँकार उठी
चख लिया था स्वाद उसने स्वतंत्रता का, कुचले जाने पर फुंफकार उठी
अंत किया इस द्वंद का, की सिंहनी सी गर्जना
जन्म लिया विद्रोह ने, तोड़ दी ये वर्जना
बीत गयी रात अन्धकार की, ये सुनहरी प्रभा है
ना छिप सकेगी, न दबेगी, ये अदम्य प्रतिभा है...!



... और ये चोरनी मैंने 9 अगस्त को बनाई थी... कैसी है ?
Thanks a lot in advance ! The all appreciation I m getting here, I m just loving it...
keep smiling you all awesome ppl !
:)
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...