Pages

Wednesday, April 03, 2013

अपना गाँव… पार्ट 2


पिछ्ली पोस्ट अपना गाँव… पार्ट 1 से जारी…

क्या मैं ये कह रही थी गाँव मुझे बेहद पसंद है? मैंने गौर किया, थोड़ी उम्र भी बढ़ी तो ज़्यादा बातें समझ में आयीं कि मुझे असल में प्यारा तो है अपनों का साथ, सिर पर बुजुर्गों का हाथ, प्रकृति का विशाल आँचल और जीवन की सरलता। परन्तु गाँवों में केवल यही सब होता तो कोई अपने घर से दूर क्यों रहता? 

यहाँ और भी बहुत कुछ है और बहुत कुछ नहीं है। बिल्कुल शुरु से शुरु किया जाये तो आज भी गाँवों में मूलभूत सुविधाँए नहीं होती। फोन के ज़रिये इन्टरनेट बेशक मौजूद है पर शौचालय यहाँ नहीं हैं। कुछेक पक्के मकान जो बने हैं वहाँ भी  शौचालय सबसे आखिर में बनने वाली चीज़ होती है। बात यहाँ बस एक निर्माण या गरीबी की नहीं, सोच और प्राथमिकताओं की है। इस सोच की बुनियाद बहुत गहरी है और इसके मूल में ही त्रुटि है। यहाँ बच्चों की शिक्षा और महिलाओं के सम्मान की बात सबसे अन्त में आती है, जहाँ तक बातें कभी पहुँचती ही नहीं। यहाँ औरतें एक हाथ लम्बे घूँघट में ज़रूर रहती हैं पर नहाना उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा दो फ़ीट ऊँची दीवार के पीछे ही होता है।


क्या जीवन को इतना सरल भी होना चाहिये? बस कमाना, खाना, ब्याह करना (बाल विवाह), बच्चे पैदा करना और जितना जल्दी हो सके उनकी शादी करना ताकि ज़्यादा से ज़्यादा पीढ़ियाँ देखकर वे स्वर्ग जा सके। लोगों के मन की सरलता ज़रूर आपको प्रभावित कर सकती है लेकिन यही सरलता या कहिये मूर्खता जब व्यक्ति और समाज की प्रगति में बाधक बने तो खीज उत्पन्न लगती है। तस्वीर का ये दूसरा पर बहुत तकलीफ़देह पहलू है। ध्यान देने पर पता चलता है कि भाइयों में अगाध प्रेम जैसा भी यहाँ कुछ नहीं है। वो तो बहनों ने अभी अपने अधिकार मांगने शुरु नहीं किये नहीं तो उन्हें भी आँख के तारे से आँख की किरकिरी बनते देर नहीं लगती।

अपने 'तन्मय' में तन्मय मेरी ममेरी बहन
दीदी ने तय किया है कि अपने 
शराबी और impotent पति के पास 
अब दुबारा नहीं जायेंगी
बेटियाँ शादी के बाद अपनी किस्मत की स्वंय उत्तरदायी होती है ऐसा अधिकतर माता पिता का विचार है। पढ़ लिखकर लोग बिगड़ जाते हैं, माँ बाप से दूर हो जाते है, बहुंए ज़्यादा बोलती है और बेटियों को योग्य वर नहीं मिलते, जो मिलते है उन्हें अधिक दहेज देना पड़ता है। ये गरीबी तो जैसे एक comfort zone है। पैसे का उपयोग शादियाँ करने, रीति रिवाज़, रिश्तेदारी निभाने और लेन देन में अधिक होता है, आखिर समाज में इज्जत भी बड़ी ज़रूरी चीज़ है। दहेज की ही कृपा से टीवी, फ़्रिज, कूलर, मोटरसाइकिल जैसी सभी चीज़ें इन कच्चे घरों में प्रवेश पाती है पर उनका उपयोग क्या है? सम्पन्नता और शाँति घर में तब ज़रूर आती जब बेटी शिक्षित और परिपक्व होती। किन्तु आधे पढ़े लिखे कम उम्र के पति का frustration सहने के लिये तो खूब दहेज के साथ अनपढ़ बहु ही अच्छी होगी न। तब बड़ी आसानी से लड़का अपनी फ़ूटी किस्मत का ठीकरा अपनी ‘गँवार’ पत्नी (मानो ब्याह करके उसके बड़े भाग खुल गये) और अपने ही अनदेखे किये हुए बेकसूर बच्चों के सिर फ़ोड़ सकता है। विश्वास नहीं होता जब पता चलता है कि मुझे बचपन से इतना दुलार करने वाले और मुझसे इतने अच्छे से पेश आने वाले मेरे भाइयों का भी अपनी पत्नियों के प्रति तो बर्ताव कुछ ऐसा ही है।

घरेलु हिंसा के चलते मेरी बहन की
इस नन्हीं बच्ची ने भी चोट खाई है।
इस सबके बावजूद लोगों की जीवटता देखकर आश्च्रर्य ज़रूर होता है पर लड़कियों को समय से पूर्व अपनी चंचलता नष्ट करते देखना और ढेर सारे बच्चों की बेकद्री होते देखना फ़िर भी सहन नहीं किया जा सकता। जिन प्यारी और सुन्दर बहनों के साथ इतनी मस्ती की बचपन में, उन्हें उनकी शादी के कुछ साल बाद पहचानना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। और अपने दर्जनों भतीजे भतीजियों के नाम याद रखना और मुश्किल काम है जबकि सबकी उम्र एक सी हो, एक जैसे बदहाल दिखते हों और उनमें से कुछ रोज़ स्कूल जाकर भी कुछ खास अलग नहीं दिखते हों। थोड़ी जान पहचान होने के बाद जब उनमें से कोई गोद में आकर बैठता है तो प्यार के साथ साथ बहुत से सवाल भी मन में उमड़ते हैं। साथ ही यह संकल्प भी जागता है कि केवल शिक्षा से ही इनके दिन फ़िर सकते है। कभी कभी यूँ भी लगता है कि इनसे इतना करीबी रिश्ता नहीं होता तो भी क्या मन इतना ही विचलित होता?

गाँव जाते हुए मन में खूब प्रेम उमड़ता है सुनहरे खेत देखकर, नदियाँ देखकर और आश्चर्य होता है कि यहाँ की धूप कैसे अराम से सहन हो जती है और कैसे यहाँ पैदल चलना भी बिल्कुल नहीं थकाता। गाँव से लौटते हुए, वहाँ की समस्याओं के इतने पास रहकर वापस आते हुए दिल उदास हो जाता है। लेकिन हम यूँ ही घर नहीं आ जाते, मम्मी पापा और अब मैं भी अपनी उम्र के लोगों के कान भरकर ज़रूर आती हूँ (in a good way)गहरी पुरानी मानसिकता और आदतों को बदलना मुश्किल तो है लेकिन ज़रूरी भी। व्यक्ति को अगर पता हो जीवन इससे बेहतर हो सकता है तो वह स्वंय चाहे समझौते करता रहे पर अपने बच्चों को ये बेहतर जीवन दिलाने का प्रयास वह ज़रूर करना चाहता है, इसी को समझकर लोगों के मन में एक आशा, एक संकल्प जगाया जा सकता है। अगर बदलाव की जरूरत समझा दिया जाये और स्वाभिमान को जगा दिया जाए तो बाकि सब अपने आप होगा।

गाँव से अपने छोटे से परिवार के साथ अजमेर अपने घर लौटते हुए, ट्रेन जैसे जैसे आगे बढ़ती है, मैं बदलने लगती हूँ, अपने आप ही। ढेरों काम याद आने लगते है और गाँव पीछे छूटने लगता है। घर लौटकर यहाँ मन लगने में थोड़ा वक्त तो लगता है पर कुछ ही दिनों में शहरी रफ़्तार में उलझकर सब भूल जाते हैं। ये ज़िन्दगी ज़्यादा अपनी लगती है और अपना घर सबसे प्यारा। चूल्हे की रोटी का स्वाद बिसरने लगती हूँ। वक्त मिलने पर और अपनेपन की कमी पड़ने पर ही फ़िर मन में गहरी बसी गाँव की छवि और महक को टटोला जाता है। दूर रहकर वहाँ की वही बातें ज़्यादा याद आती हैं जो मुझे पसंद है, कानों में ट्रेन की आवाज़ सुनाई देती है और मन पलभर में जीवन्त और सुन्दर गाँव में पहुँच जाता है, बहनों के ठहाकों, भाभियों की ठिठोली और बड़ों की हिदायतों के सिवा जहाँ सिर्फ़ प्रकृति का संगीत सुनाई देता है। मिट्टी की महक और पेड़ों की छाँव महसूस होने लगती है और बड़े से परिवार की खिलखिलाती हुई तस्वीर नज़र आती है। अपना गाँव अपना ही होता है।


कुछ और बातें अपने गाँव की, पार्ट 3 में…

Monday, April 01, 2013

अपना गाँव… पार्ट 1


दादाजी का घर, ज़ैपला
गाँवों के बारे में, आप किताबों में पढ़ते हैं, लोगों से सुनते हैं और दोस्तों के गाँव जाते भी हैं, लेकिन वो एहसास बहुत ही अलग और सुन्दर होता है जब आपका अपना एक गाँव हो, जहाँ आपके अपने लोग रहते हो और जहाँ की हर चीज़ से आपको कोई बहुत गहरा रिश्ता महसूस होता हो। फ़िर चाहे अपनी ज़िन्दगी का एक छोटा सा हिस्सा भी आपने वहाँ गुज़ारा ना हो, फ़िर चाहे वहाँ 4 दिन रहने में ही आपको शहरी सुख सुविधाओं की ज़ोरदार याद सताने लगे पर वो जो feeling of belongingness है, उसी की खातिर आप वहाँ बार बार जाना चाहते हैं। जहाँ से दूर रहकर भी आप अच्छी तरह समझते हैं कि वहाँ चीज़ें कैसे काम करती हैं, जहाँ के अभाव और गन्दगी देखकर आपको घिन्न नहीं आती, बल्कि तकलीफ़ होती है।

प्यारी नानीजी, अपने पीहर हमीरपुर में
राजस्थान के बाराँ जिले के दो पड़ोसी गाँवों से मेरा सम्बन्ध है। जैपला (मेरा जन्मस्थान), जहाँ दादाजी दादीजी रहते हैं और गेहूँखेड़ी, जहाँ नानीजी का घर है। सप्ताहभर पहले ही वहाँ जाकर आयी, पूरे चार साल बाद, पूरे तीन दिन के लिये एक अतिरिक्त दिन मम्मी का ननिहाल देखने के लिये, जो पार्वती नदी (just wow! अब समझी, मेरी मम्मी का नाम भी ये क्यों है!) के पार मध्यप्रदेश के एक गाँव हमीरपुर में है, वहाँ जैसे मैंने नानीजी का भी बचपन देखा और मम्मी पर लुटते दुलार की भी कल्पना की। बचपन से मैं हर साल, गर्मियों की छुट्टियों का इन्तज़ार ट्रेन में बैठने और गाँव जाने के लिये ही किया करती थी। गाँव मेरे लिये रोमांच का दूसरा नाम था, एक तरह से अब भी है। लेकिन कुछ चीज़ें जो पहले होती थी, वो जाने कैसे अब सिर्फ़ याद करने और मुस्कुराने की वजह बनकर रह गयीं।  

दादाजी-दादीजी, मम्मी-पापा और मैं

बहुत लम्बी है ये सूची, पर करूँ क्या, मुझे बहुत प्यारी है। परवाह भरी डाँट खाते हुए नीम के पेड़ पर चढ़ने की कोशिशें करना; आँगन के कपास के पेड़ से ज़रा सी रुई निकालना और उसमें उसके एक दिन कपड़ा बनने तक का सपना ढूँढ्ना; खेत जाने के मौके ढूँढना (वो जो बैठने की जगह होती है वहाँ झोपड़ी जैसी, डॉल हॉउस से कम होती है क्या?); अपने खेत के आम के पेड़ से अधपके आम तोड़ना (दरअसल भाई बहनों से तुड़वाना।), अपने जैसी छोटी सी चरी लेकर हैंडपम्प से पानी भरने चल देना, प्रॉपर खाना छोड़कर कच्ची पक्की सब चीज़ें खाना, फ़िर पेट दुखाते बैठना और नानीजी को परेशान करना; प्याज़ के नीचे तीलियों की चार टांगें लगा उसका बकरा बनाना, पत्थर के भगवान के आगे उसकी गर्दन उड़ाना और फ़िर रोटी के साथ खा जाना (और शाकाहारी हूँ मैं!); धूप और धूल से परेशान होकर थोड़े नखरे करना और हंसी का पात्र भी बनना; कपड़े के गुड्डे गुड़ियाँ बनाना सीखना; बैलगाड़ी में जुते बैलों के बोझ की परवाह करना; थोड़ी मनघड़ंत किस्से सुनाकर अपने भाई बहनों के अचंभित चेहरों का आनंद लेना; दादाजी से कहानियाँ सुनना, उन्हें गाते हुए सुनना, घरेलु प्रयोग के लिए रस्सी बनाते देखना और जब नानाजी के पास जाना तो हल्की फ़ुल्की बातें करके सोचना थोड़ी तबियत ठीक होगी तब पता चलेंगी गहरी बातें! (चेहरे पर जितनी ज़्यादा झुर्रियाँ हों न, ज्ञान का उतना ही विशाल खज़ाना प्राप्त होने की संभावनांए रहती है)।

दादीजी के घर सबसे छोटी पोती और नानीजी के यहाँ इकलौती नातिन होने और शुरु से ही सबसे दूर रहने के कारण मुझे दोनों जगह ‘अतिरिक्त’ भाव मिलता है (जो पास रहने पर शायद नहीं मिलता! यहीं पली बढ़ी बेटियों की ज़िन्दगी को देखकर ही कहती हूँ)

दादाजी-दादीजी, जैपला
बड़े मामाजी का घर, गेहूँखेड़ी

 
हमीरपुर में
                   
गेहूँखेड़ी में
पार्वती नदी के किनारे 

मम्मी तब हमेशा कहती थी, ‘घर में ही रहना और अकेले मत निकल जाना गाँव में…’ और मुझे गाँव के बीच का हिस्सा बड़ी रहस्यमयी सी जगह लगता था लेकिन रहस्य कितने प्यारे हैं मुझे, ये कहने की ज़रूरत है क्या? तब मैं अजनबी नज़रों से घबरा जाती थी और ‘नज़र लगना’ भी कुछ होता है, ये भी मैंने जाना। इस बार भी घर में कदम रखते ही दादाजी ने हम बच्चों को काजल का टीका लगाने को कहा। दादाजी का रवि को गुड मॉर्निंग कहने का अन्दाज़ कुछ यूँ था, ‘अरे वे माछर कब का बाट न्हाळ रिया (अरे वो मच्छर कब से राह देख रहे है), कि रवि उठे तो हम उसे खायें…’ 

हिन्दी मुझे हमेशा से बहुत प्यारी है और अंग्रेज़ी में भी खूब पटर पटर करके धाक जमा लेती हूँ लेकिन गाँव जाकर राजस्थानी का क्षेत्रिय मीठा वाला संस्करण बोलने का मोह मुझसे नहीं छूटता। यहाँ लोगों को ये समझाना कि मैं क्या पढ़ रही हूँ, ज़रा मुश्किल होता है। मैं पढ़ाई के साल गिनती हूँ और बताती हूँ कि 21वीं कक्षा में पढ़ रही हूँ। फ़िर सबके मन में कई सवाल उठते होंगे पर पूछे नहीं जाते। पीएचडी के बारे में बताते हुए जब मैंने दादाजी दादीजी को जलचर पक्षियों (wading birds) के क्षेत्रिय नाम लेकर अपना काम बताया तो दादीजी पहले समझी, उन्होंने दादाजी को समझाया और फ़िर उन दोनों मुझे इन पक्षियों के भोजन की जानकारी दे डाली। कितना आनंददायक होता है न अपने मम्मी पापा के मम्मी पापा को कुछ समझाना और उनसे बहुत कुछ समझना।

हमारे गाँवों में जब घर में दूध नहीं होता है तो पाउडर वाली चाय बनती है (दादीजी को प्लीज़ मत बताना कि छुप छुपके कोरा दूध पाउडर खाने वाली चटोरी मैं ही थी)। दादीज़ी के घर हों या नानीजी के, सुबह सुबह कम से कम तीन कप चाय तो पीनी ही पड़ती है कि कहीं कोई ताईजी बुरा ना मान जाएं या कोई मामीजी, इसलिये सबके घर चाय पियो। अरे, ऐसी कितनी ही अनोखी बातों को मज़े से जिया और बहुत सम्भाल कर रखा यादों में, जैसे कि पहले ही जानती होऊँ, जाने कब से ये सब time और space में फ़िर कहीं दुबारा देखने को नहीं मिले।  
मम्मी, अपनी मम्मी के साथ

नानाजी अब नहीं हैं और उनका मिट्टी का बना दो मंज़िला घर (ऊपरी तल को हम अट्टा कहते थे और उसकी छोटी संकरी सीढ़ियाँ मुझे बहुत रोमाँचित करती थी), अब खंडहर सी अधूरी दीवारों में बचा है। तीनों मामाजी के घर पास में ही हैं पर वो घर अब कहाँ है जहाँ मैंने अन्तहीन प्रतीक्षा की, नानाजी के अधिक स्वस्थ होने की। उनके लगाए विशाल पेड़ों को छूकर मैंने देखा और जाना कि ये सम्भव है और बिल्कुल झूठ नहीं है कि उनके पाले पोसे हुए पेड़ों से, मैं उनका प्रेम पा सकती हूँ। मम्मी कहती है कि नानाजी उन्हें उनकी कुशाग्र बुद्धि और तीखे स्वभाव के कारण ‘भवानी’ कहते थे, जिनके लिये, दूरदृष्टि का परिचय देते हुए, मेरे पापा जैसा उचित वर उन्होंने ढूँढा (या हाथ से जाने नहीं दिया? खैर, पापा ने भी ‘बाबूजी’ की बेटी को फ़िर हाथ से नहीं जाने दिया।) और फ़िर, एक और ‘भवानी’ पैदा हुई, मैं।




क्या मैं ये कह रही हूँ गाँव मुझे बेहद पसंद है? मैंने गौर किया, थोड़ी उम्र भी बढ़ी तो ज़्यादा बातें समझ में आयीं कि मुझे असल में प्यारा तो है अपनों का साथ, सिर पर बुजुर्गों का हाथ, प्रकृति का विशाल आँचल और जीवन की सरलता। गाँवों में केवल यही सब होता तो कोई अपने घर से दूर क्यों रहता?

कुछ बातें और हैं दिल में, पार्ट 2 में कहूँगी…


Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...