पिछ्ली पोस्ट अपना गाँव… पार्ट 1 से जारी…
क्या मैं ये कह रही थी गाँव मुझे बेहद पसंद है? मैंने गौर किया, थोड़ी उम्र भी बढ़ी तो
ज़्यादा बातें समझ में आयीं कि मुझे असल में प्यारा तो है अपनों का साथ, सिर पर
बुजुर्गों का हाथ, प्रकृति का विशाल आँचल और जीवन की सरलता। परन्तु गाँवों में
केवल यही सब होता तो कोई अपने घर से दूर क्यों रहता?
यहाँ और भी बहुत कुछ है और
बहुत कुछ नहीं है। बिल्कुल शुरु से शुरु किया जाये तो आज भी गाँवों में मूलभूत
सुविधाँए नहीं होती। फोन के ज़रिये इन्टरनेट बेशक मौजूद है पर शौचालय यहाँ नहीं
हैं। कुछेक पक्के मकान जो बने हैं वहाँ भी
शौचालय सबसे आखिर में बनने वाली चीज़ होती
है।
बात यहाँ बस एक निर्माण या गरीबी की नहीं, सोच और प्राथमिकताओं की है।
इस सोच की बुनियाद बहुत गहरी है और इसके मूल में ही त्रुटि है। यहाँ बच्चों की शिक्षा
और महिलाओं के सम्मान की बात सबसे अन्त में आती है, जहाँ तक बातें कभी पहुँचती ही
नहीं। यहाँ औरतें एक हाथ लम्बे घूँघट में ज़रूर रहती हैं पर नहाना उन्हें ज़्यादा से
ज़्यादा दो फ़ीट ऊँची दीवार के पीछे ही होता है।
क्या जीवन को इतना सरल भी होना चाहिये? बस
कमाना, खाना, ब्याह करना (बाल विवाह), बच्चे पैदा करना और जितना जल्दी हो सके उनकी शादी करना ताकि ज़्यादा से ज़्यादा
पीढ़ियाँ देखकर वे स्वर्ग जा सके। लोगों के मन की सरलता ज़रूर आपको प्रभावित कर सकती
है लेकिन यही सरलता या कहिये मूर्खता जब व्यक्ति और समाज की प्रगति में बाधक बने तो
खीज उत्पन्न लगती है। तस्वीर का ये दूसरा पर बहुत तकलीफ़देह पहलू है। ध्यान देने पर
पता चलता है कि भाइयों में अगाध प्रेम जैसा भी यहाँ कुछ नहीं है। वो तो बहनों ने अभी
अपने अधिकार मांगने शुरु नहीं किये नहीं तो उन्हें भी आँख के तारे से आँख की किरकिरी
बनते देर नहीं लगती।
अपने 'तन्मय' में तन्मय मेरी ममेरी बहन |
दीदी ने तय किया है कि अपने शराबी और impotent पति के पास अब दुबारा नहीं जायेंगी |
घरेलु हिंसा के चलते मेरी बहन की इस नन्हीं बच्ची ने भी चोट खाई है। |
गाँव जाते हुए मन में खूब प्रेम उमड़ता है सुनहरे खेत देखकर, नदियाँ
देखकर और आश्चर्य होता है कि यहाँ की धूप कैसे अराम से सहन हो जती है और कैसे यहाँ
पैदल चलना भी बिल्कुल नहीं थकाता। गाँव से लौटते हुए, वहाँ की समस्याओं के इतने
पास रहकर वापस आते हुए दिल उदास हो जाता है। लेकिन हम यूँ ही घर नहीं आ जाते,
मम्मी पापा और अब मैं भी अपनी उम्र के लोगों के कान भरकर ज़रूर आती हूँ (in a good way)। गहरी पुरानी मानसिकता और आदतों को बदलना मुश्किल
तो है लेकिन ज़रूरी भी। व्यक्ति को अगर पता हो जीवन इससे बेहतर हो सकता है तो वह
स्वंय चाहे समझौते करता रहे पर अपने बच्चों को ये बेहतर जीवन दिलाने का प्रयास वह ज़रूर
करना चाहता है, इसी को समझकर लोगों के मन में एक आशा, एक संकल्प जगाया जा सकता है।
अगर बदलाव की जरूरत समझा दिया जाये और स्वाभिमान को जगा दिया जाए तो बाकि सब अपने
आप होगा।
गाँव से अपने छोटे से परिवार के साथ अजमेर अपने घर लौटते हुए,
ट्रेन जैसे जैसे आगे बढ़ती है, मैं बदलने लगती हूँ, अपने आप ही। ढेरों काम याद आने
लगते है और गाँव पीछे छूटने लगता है। घर लौटकर यहाँ मन लगने में थोड़ा वक्त तो लगता
है पर कुछ ही दिनों में शहरी रफ़्तार में उलझकर सब भूल जाते हैं। ये ज़िन्दगी ज़्यादा
अपनी लगती है और अपना घर सबसे प्यारा। चूल्हे की रोटी का स्वाद बिसरने लगती हूँ। वक्त
मिलने पर और अपनेपन की कमी पड़ने पर ही फ़िर मन में गहरी बसी गाँव की छवि और महक को
टटोला जाता है। दूर रहकर वहाँ की वही बातें ज़्यादा याद आती हैं जो मुझे पसंद है, कानों
में ट्रेन की आवाज़ सुनाई देती है और मन पलभर में जीवन्त और सुन्दर गाँव में पहुँच
जाता है, बहनों के ठहाकों, भाभियों की ठिठोली और बड़ों की हिदायतों के सिवा जहाँ
सिर्फ़ प्रकृति का संगीत सुनाई देता है। मिट्टी की महक और पेड़ों की छाँव महसूस होने
लगती है और बड़े से परिवार की खिलखिलाती हुई तस्वीर नज़र आती है। अपना गाँव अपना ही
होता है।
कुछ और बातें अपने गाँव की, पार्ट 3 में…