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क्या मैं वैसी ही
हूँ? मन में झाँकती हूँ तो मुश्किल से नौ साल की एक लडकी दिखायी देती है। चुप
चुप खोयी हुई सी या दुनिया जहान की बहुत सी बातें करने वाली। अपने परिवार अपने भाई
को लेकर उसके सपने, दुनिया को ‘ठीक’ कर देने के उसके निश्चय और एक दिन बहुत मशहूर
हो जाने की उसके मन की आग। बहुत बार वो पहाडों में भी खो जाना चाहती थी, गुमनाम, अध्यात्म
की राह पर, लेकिन लौट आती थी अपनी कल्पनाओं से क्योंकि जरुरत है इस दुनिया को
उसकी। ईश्वर को खोजने वो फिर कभी निकल सकती है। फिर मम्मी पापा भी तो डाँट देते
हैं जब टीवी पर ॐ नम: शिवाय देखते हुए वह भी तपस्या में लीन होने की कोशिश करती थी।
फिर उसका मन भटकता भी तो कितना है। उसे एक दिन प्यार भी करना है, हालांकि बिल्कुल
खूबसूरत और प्यारी नहीं लगती वो किसी को स्कूल में। बस हड्डियों का ढाँचा जो बहुत
गोरी भी नहीं और जिसके चेहरे पे ये बडा सा तिल है। वो तो कभी टॉप भी नहीं करती
लेकिन हमेशा आगे की पंक्ति में बैठना ही उसे पसंद है, लम्बाई भी तो कम है उसकी।
उसे दूसरी छोटी बचचियों की तरह प्यारी प्यारी बेवकूफी भरी बातें करना और बात बात
पर खिलखिलाना पसंद नही। उसे या तो बहुत सूक्ष्म या बहुत बडी बड़ी बातें करना पसंद
है। शायद इसलिये उसे कोई प्यार नहीं करता। लेकिन एक दिन तो वो बहुत लोकप्रिय होने
ही वाली है।
इसी लडकी ने जब
ये पहाड़ पहली बार देखा तो नहीं जानती थी कि उसकी हर एक याद को वो अपने में इस तरह सहेज
लेगा, उसे खुद से जोड़े रखेगा। अजमेर आते ही जिन्दगी बदल सी गयी, बदली क्या उसे तो
मानो ये सब पहले ही पता था, फिर भी यकीन करने में वक्त लग गया। उस नौ साल की उमर
में ही, अपने पापा के विश्वास के चलते, मम्मी के स्नेह और अपने चुनौतियों को बहुत
मामूली समझने की आदत के चलते जब दसवीं का इम्तहान पास कर लिया तो मानो दुनिया ने
उसे सिर पर चढा लिया। पता नहीं प्यार किया या नहींl लेकिन वह एक कौतूहल की चीज़ जरूर
हो गयी। अच्छा है कि ये सब उसके सिर पर नहीं चढा। लोग तो फिर भी कह देते हैं, लडकी
अभिमानी है, उनकी इस मान्यता के आगे हार मान ली उसने। जो जानने लगते हैं कम से कम
वो तो उसे चाहते हैं।
तब से आज तक कितनी दूर चल कर आ गयी हूँ मैं और कितनी तेजी से। मेरी रफ्तार
मानो बढती से ही जा रही है। जब नहीं सम्भाल सकी, रुक कर सम्भल भी गयी हूँ। कितने सारे
लोगों से मिल ली हूँ मैं ,कितनों के दिल में बस गयी और कितने ही मेरे दिल में रहने
लगे। उपलब्धियाँ जुटाये जा रही हूँ और ठोकरों को मैं गिनना नहीं चाहती। बहुत बार
क्रूर बनी हूँ, बहुत बार लोगों ने निराश किया है मुझे और मैंने अपना दिल तोडा है।
इस तरह कितनी अलग अलग तरह के और उमर के लोग अलग अलग कारणों अलग अलग जगहों से मेरे
दोस्त बने है। कई दूर भी चले गये हैं, बहुत याद भी आते है और कभी कभी कहीं मिल भी
जाते हैं। दिल के तार अब इन्टरनेट की तरंगों से भी जुड गये हैं। इतने सब लोगों के
साथ भी मेरे अकेलेपन को इस पहाड़ ने देखा है। प्यार को जागते हुए भी देखा है और जब
जब मैं मायूस हुई हूँ मुझे ये सब कुछ याद भी दिलाया है। मुझे इस तेज हवाओं वाली
सुबह ये अहसास हुआ है कि इस पहाड़, छत पर मेरी इस जगह से कितना प्यार करती हूँ मैं
और मेरी जिन्दगी में और जितने भी लोग हैं, उन सभी से।