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Friday, August 16, 2013

'The wisest men of my life'




इनके बारे में यहाँ इस ब्लॉग पर ज़रूर पढ़ें… http://iamjustlearning.blogspot.in/2013/08/the-wisest-men-of-my-life.html 

धन्यवाद।

Friday, May 03, 2013

अपना गाँव… पार्ट 4 : बाल विवाह


पार्ट 3 से जारी…

मेरे मम्मी पापा हमारे खेत में और संध्या का समय

हम सब अपनी जड़ों से प्यार करने वाले लोग हैं। स्वंय स्वतंत्रता पाकर हम प्रसन्नता तो अनुभव करते हैं लेकिन साथ में खोखलापन भी। हम बार बार अपने घरों की ओर रूख करते हैं लेकिन बार बार निराश होकर लौट आते हैं। अपने आपको ढेरों बहाने देकर अपनी आरादायक ज़िन्दगी को फ़िर से अपना लेते हैं। लेकिन लोगों को उनके हाल पर छोड़ देना भी तो हमारे स्वभाव में नहीं है, इसलिये हम चिंतन करते हैं, प्रार्थना करते हैं और कभी कभी कोशिशें भी, विकास को सभी जगह बराबर पहुँचाने की। फ़िर हम ये भी चाहते हैं लोगों में हमारी छवि हर बात में टाँग अड़ाने वाले की ना हो जाये, लोगों को ये ना लगने लगे कि ज़रा सी सफ़लता और ज़रा सा पैसा पाते ही हमें वे सब पुराने लोग और पुराने तौर तरीके बेकार लगने लगे हैं जो पहले हमें प्रसन्नता दिया करते थे। लेकिन क्योंकि सच तो केवल हम जानते हैं, इसलिये कभी हार भी नहीं मानते


अपने गाँव की ओर लौटना मन को शान्ति और व्याकुलता से एक साथ भर देता है। शान्ति देती है ये बात कि आसमान छूकर भी अपनी ज़मीन से हमारा रिश्ता नहीं टूटा है और व्याकुलता उन सब बातों की जिनके कारण हम सब इस धरती से दूर हो गये हैं और निरंतर दूर होते जा रहे हैं। अशिक्षा, अधूरी बेकार सुविधाएं, बाल विवाह और खासकर स्त्रियों को जकड़ी हुई निरर्थक परम्पराएं और मान्यतांए ही है जो गाँवों को और वहाँ के जीवन को उतना सुंदर नहीं रहने देती जितना उन्हें होना चाहिये। जबकि प्रकृति के साथ जैसा तालमेल में यहाँ के जीवन में होता है और जितने कम जंजाल यहाँ होते हैं, उसके अनुसार तो अपने गाँव से बेहतर कोई रहने की जगह हो ही नहीं सकती। लेकिन हम शहरों में ही बसते हैं, मजबूरी से अधिक ये हमारा चुनाव है, हालाँकि हम किसी को पीछे नहीं छोड़ना चाहते, किन्तु हम स्वयं भी पीछे नहीं छूटना चाहते।


गाँव जाते हुए ट्रेन की खिड़की से जब पास वाले पेड़ तेज़ी से भागते, दूर के वन और पहाड़ बहुत धीरे गुज़रते, और बादल और सूरज हमारे संग चलते दिखते तो मैं इस बात का कोई गहरा मतलब ढूँढने का प्रयास करती। ऐसे छुपे हुए मतलब ढूँढने की आदत कभी नहीं गयी, बल्कि समय के साथ मैं इसे और अच्छे से करना सीख गयी। इससे क्या होगा वह एक अलग बात है लेकिन मुझे ये पूरा विश्वास है कि समस्या को ठीक से समझना ही समाधान की ओर बढ़ता सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम है। कहा भी गया है, A problem well defined is problem half solved”

मूलभूतसुविधाओं और शिक्षा की दयनीय हालत के बाद गाँवों की सबसे गंभीर समस्या है बाल विवाह। ये बातें सिर्फ़ गाँवों की नहीं है, शहरों के भी कुछ पिछड़े उपेक्षित हिस्से ऐसे हैं जो बुरी तरह इन बुराइयों में उलझे हुए हैं लेकिन उन क्षेत्रों से भी गाँव ही अधिक सम्पन्न हैं, वहाँ खेती है, वे लोग प्रकृति के साथ चलते हैं, मेहनती हैं और वहाँ अब भी खुली ज़मीन उपलब्ध है। लेकिन बात कहीं की भी हो, कोई भी बहाना दिया जाए, बुराई कम हो या ज़्यादा, गलत बात गलत ही रहती है।

हमारी संस्कृति में विवाह को बहुत अधिक महत्व दिया गया है और कुछ लोगों ने इस बात को इतनी गंभीरता से ले लिया है कि लगता है सिर्फ़ शादी ही जीवन है, माता पिता की इकलौती ज़िम्मेदारी है शादी और सब संकटों को दूर करने की चाबी है शादी। और जब शादी हो जाये तो उसे बनाए रखने की कोशिशों में अपने आपको झोंकना ही जैसे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। दो लोगों की शादी करवाकर जैसे परिवार और सारा समाज जल्द से जल्द पूरी तरह उॠण हो जाना चाहता है। इस पुण्य को प्राप्त करने की जल्दबाज़ी की ही परिणिती है बाल विवाह।

बालिग होते ही विवाह करना भी मुझे कुछ बहुत उचित नहीं लगता, क्या अट्ठारहवां जन्मदिन आते ही लड़की मानसिक और शारीरिक रूप से एकदम से परिपक्व हो जाती है, क्या वह पर्याप्त ज्ञान अर्जित कर चुकी होती है कि आत्मनिर्भर हो सके, क्या वह आने वाली जिम्मेदारियों को उठाने के योग्य हो जाती है? क्या लड़का तैयार होता है ये जिम्मेदारियाँ उठाने के लिये, क्या वह 21 की उम्र में अपने करियर में वह मुकाम हासिल कर चुका होता है जो उसने सोचा था? बहुत से लोगों की पढ़ाई के बीच में उनकी शादियाँ हो जाती हैं और वे ज़िन्दगीभर या तो “काश” का रोना रोते पाये जाते है या एक दूसरे को कोसते। नि:संदेह विवाह महत्वपूर्ण है और इसीलिये ये निर्णय बहुत समझदारी से उचित समय पर लेना और आवश्यक बन जाता है।

अपने चचेरे और ममेरे भाई-बहनों के बाल विवाह होते मैंने देखे हैं और उन्हें ये करने से रोकते रहने के कारण मेरे मम्मी पापा को अपने अपने परिवारों में ‘विलेन’ बनते भी देखा है। अपनों से लड़ना दुनिया की सबसे मुश्किल लड़ाईयों में से सबसे मुश्किल है, (असंभव फ़िर भी नहीं)अब सोचती हूँ ऐसे परिवेश से आकर भी मैं जितना पढ़ सकी हूँ, उन सब उपलब्धियों के पीछे कैसा छुपा हुआ अनवरत संघर्ष है। और जो 5 सालों की बचत मैंने की है, वो समय अब कैसे बहुत काम आ रहा है, ये महत्व पहले नहीं समझी थी मैं।

खैर, अब बाल विवाह के बारे में। विवाह पहले ही इतना रंग बिरंगा उत्सव है हमारे देश में और बच्चों को तो कोई भी बात बड़ों से अधिक ही रोमांचित करती है। सुन्दर आभूषणों और वस्त्रों के आकर्षण में, स्वंय का महत्व बढ़ने की आशा में और आनेवाले प्रेममयी जीवन की कल्पना में, वे नहीं सोचते कि इन प्रलोभनों के माध्यम से किस प्रपंच में उन्हें फ़ंसाया जा रहा है। और जब वे ये सब समझते हैं तब वे ये भी सीख चुके होते हैं कि अपने साथ होने वाली हर बुरी बात की ज़िम्मेदारी कैसे और किन के सर मढ़ी जाए।

गाँव में औसतन 16-17 की उम्र में सभी का विवाह हो चुका होता है और इसके एकाध साल बाद गौना भी दे दिया जाता है। कुछ लोग ज़िम्मेदारियाँ पल्ले पड़ते ही पढ़ाई छोड़ देते हैं, तो कुछ को पढ़ाई अचानक महत्वहीन और व्यर्थ लगने लगती है, और अपना पुत्र धर्म / पुत्री धर्म निभाते हुए वे पढ़ाई का “त्याग” कर देते हैं। पूरे मनोयोग से वे अपने संघर्षमय जीवन को अपना लेते है और समाज में बड़ों की इज़्ज़त बचाए रखने के काम में लग जाते हैं। यही आसान राह लगती है उन्हें, सबको खुश रखना और कुछ हो तो उन्हीं को खुशी खुशी दोष देना, या फ़िर अपने भाग्य को। वैसे बाल विवाह भी सफ़ल, सुखी होते हैं पर अपवाद स्वरूप, वो भी शायद इसलिये कि लोग समझौते करने में पारंगत हो जाते हैं, या इसलिये कि वे अपने बच्चों का जीवन सुधारने को ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं। पर इस तथ्य से भी जल्दी विवाह को बिल्कुल जायज़ नहीं ठहराया जा सकता।

कर्ज़ लेकर बहुत उल्लास के साथ लोग अपने बच्चों की शादी करते हैं, पर लगभग हर तीसरे बाल विवाह में ऐसा होता है कि शादी के बाद या तो उनका बेटा बीमार हो जाता है या बहू, फ़िर वे और कर्ज़ लेते हैं लेकिन समझते तब भी नहीं। ऐसा नहीं भी हो तो लड़की के चेहरे की उड़ी हुई रंगत छिप नहीं सकती, 19 साल की उम्र में वो दो बच्चों की माँ होती है और फ़िर भी बेटा पैदा करने का भारी दबाव उस पर होता है। माता पिता की नाक ना कटे इसलिये वह पति की झुंझलाहट को भी अपनी सहन शक्ति से परे जाकर सहती है। (झुंझलाहट लड़की में भी कम नहीं होती, जो विभिन्न रूपों में बाहर निकलती है, और एक अच्छी बहू का ढोंग वे बहुत दिन जारी नही नहीं रख पाती।)

मैं गाँव में अपनी एक भाभी के साथ
लड़कियों के पति की कमाई के साथ साथ घर में उनके (लड़कियों के) महत्व में उतार चढ़ाव आते हैं, जिसे सम्भालने की कोशिशें भी उन्हें करनी होती हैं, अब उनका स्वयं का कोई जीवन शेष नहीं है, शिक्षा तो बहुत पीछे छूट गई है और इस इक्कीसवीं सदी में भी उन्हें अपने बच्चे की जन्म तारीख नहीं पता। परिवार नियोज्न से तो इन्हें कोई लेना देना नहीं (‘भगवान दे रया और म्हें ले रया,’)। स्तिथि को और बुरा बनाने के लिये शराब भी तो है, और घरेलु हिंसा, वह तो किसी ना किसी रूप में हर कहीं मौजूद है। एक बहुत बुरी आदत इंसान की ये है कि अपने साथ हुए हर अन्याय का बदला वह उससे लेने लगता है जो उसके करीब हो, फ़िर चाहे वह दूसरा व्यक्ति भी उस अन्याय का उतना ही मारा क्यों ना हो।

मानव का स्वभाव है कि वह हर परिस्तिथि में कोई ना कोई सुख ढूंढने की कोशिश करता है, और इसलिये ये लोग अपनी बड़ी समस्याओं से ध्यान भटकाने की खातिर मनोरंजन और आराम के साधन जुटाने लगते हैं और सोचकर खुश होते हैं कि वे आगे बढ़ रहे हैं, अपने परिवार को खुशियाँ दे रहे हैं। क्यों बच्चों की शिक्षा को ही सबसे आखिरी प्राथमिकता है? वे इसके जवाब में ज़रूर पैसों का रोना रोयेंगे पर मैं पूछ्ती हूँ गरीबी है कहाँ? शादियाँ यहाँ भी खूब खर्चीली होती हैं और दहेज की राशि और सामान देखकर तो किसी की भी आँखें चुंधिया जाएं। गरीबी तो यहाँ केवल सोच में हैं, गरीबी है हौसलों की। अगर पढ़ लिखकर अपना जीवन संवारने का पर्याप्त समय और प्रेरणा ही इन्हें मिली होती तो जितनी है उतनी गरीबी भी नहीं होती और ये मानसिक दिवालियापन भी ना होता।

गाँवों में बाल विवाह को इतना समर्थन यूँ ही नहीं प्राप्त है, लोगों के पास तर्क भी है। ये बहुत पुरानी सोच उनके अवचेतन मस्तिष्क में गहरे बैठ चुकी है। एक बहुत चौंकाने वाली बात मुझे अपनी एक कज़िन से पता चली कि जल्दी शादी करने के पीछे एक ये अन्धविश्वास भी है कि लड़की के मासिक चक्र शुरु होने से पहले यदि उसका विवाह तय नहीं किया जाता तो उसके परिजनों को “धर्म” नहीं लगता। राहत की बात ये है कि ये एक बहुत पुरानी मान्यता है और अब धीरे धीरे भुलाई जा रही है। लेकिन और बहुत बहाने हैं बालविवाह के पक्ष में।

लड़की वाले अक्सर कहते हैं “अच्छा लड़का” मिल गया था (‘वो भी सस्ते में!’)। ये अच्छा लड़का क्या होता है, मुझे कभी समझ नहीं आया। क्या आपकी बेटी ‘अच्छी’ नहीं, क्या भविष्य में अच्छा लड़का उसे मिलेगा ही नहीं? हौसलों की कमर तोड़ने के लिये ज़रा सा अविश्वास ही बहुत होता है, कितना आसान है ऐसे में अपने आपको किस्मत के हवाले कर देना। लेकिन ये आसान राह कब मुश्किल हो जाती है, पता भी नहीं चलता।

लोगों को अब भी सच में लगता है कि शादी सभी समस्याओं का हल है, समाज से व्यभिचार और बलात्कार मिटाने का एकमात्र उपाय है। पर सच क्या है वह आज की तारीख में किसी को समझाने की ज़रूरत नहीं, ज़रूरत तो फ़िर से विचार करने की है, आँखें खोलने की है

कहीं दूर अपवाद स्वरूप अगर किसी लड़के या लड़की ने अपनी आज़ादी का कोई गलत फ़ायदा उठाया तो कम से कम 10 नौजवानों को उसकी सज़ा मिलती है, उनसे सारे अवसर छीन लिये जाते है और जल्द से जल्द उनकी शादी हो जाती है। खासकर अपनी बेटियों की सुरक्षा को लेकर तो हम इतने चिन्तित हैं कि उनके ज़रा से पर निकलते ही हम उन्हें कतरने लगते हैं। परिवर्तन को सही साबित करने के लिये ढेरों अच्छे उदाहरण चाहिये होते है और कोई एक मूर्खता भरा कारण ही पर्याप्त होता है उस परिवर्तन को प्रभावहीन बनाने के लिये। जैसे चार कदम आगे चलते ही दो कदम पीछे आ जाना।

लड़के के घर में यकायक एक हाथ बँटाने वाली की ज़रूरत पड़ जाती है या उन्हें अचानक लगने लगता है कि उनकी उमर हो गयी है, कब सबकी शादियाँ हों और कब वे गंगा नहाएं! । माटी की एक सुन्दर गुड़िया मिलते ही वे शादी कर देते हैं। हालांकि शादी के बाद नयी ख्वाहिशें पैदा हो जाती हैं। अपने कुटुंब को बढ़ते देखने का सौभाग्य भी इन्हें चाहिये। जनसंख्या ऐसे ही बढ़ती है, 100 साल के अन्तराल में सामान्यत: जहाँ अधिकतम 4 पीढ़ियाँ ही होनी चाहिये, कम उम्र में शादी और जल्दी बच्चे होने से 5 पीढ़ियों को देखने का सौभाग्य लोग ले रहे होते हैं। जिन बच्चों के लिए इतना तड़पते हैं लोग, उनका लालन पालन कैसे होता है, ये देखकर हृदय के टुकड़े हो जाते हैं।


"तमन्ना"
(मेरी भतीजी)

लेकिन, लेख की शुरुआत में ही मैंने कहा है, हम कभी हार नहीं मानते। बहुत धीरे ही सही, पर सोच बदल रही है और नये लोग इस बदलाव की ज़रूरत को समझ भी रहे हैं।

Saturday, April 20, 2013

अपना गाँव… पार्ट 3



पार्ट 2 से जारी…

गाँव और शहर से मेरा संबन्ध जन्म देने वाली माँ और पालने वाली माँ जैसा है। गाँवों के सौंदर्य का बखान करते रहने वाले हम शहरी-गँवार लोग, वहाँ अधिकतम रह ही कितने दिन सकते हैं? मैं तो बिल्कुल नहीं, ऐसा मेरे सिवाय सभी का, पक्का विश्वास है, गाँव में भी और शहर में भी। पर मुझमें ये सारा विशेष अपनत्व और आकर्षण केवल इसी कल्पना से जागता है कि मेरे मम्मी पापा का बचपन इन गाँवों मे गुज़रा है, और उनके मम्मी पापा का तो सारा जीवन।

मैं कहाँ से आई हूँ, ये जानना मुझे हमेशा से सबसे रोचक लगता है, तभी तो स्कूल और कॉलेज में भी जैव उद्विकास (Organic Evolution) और मानव उद्विकास (Evolution of man) ही मेरे सबसे प्रिय विषय रहे हैं। चौथी से सीधे जब दसवीं कक्षा पढ़ी और पहली बार डार्विन (Darwin), लैमार्क (Lamarck) और लीनियस (Linnaeus) के सिद्धान्त पढ़े तो दीवानी हो गयी थी उनकी। वैसा ही अचम्भा अब मुझे ये जानकर होता है कि अब तो इतने मिलियन सालों का समय लिये बिना ही हम बहुत तेज़ी se बदल गये हैं और बदल रहे हैं। ये जानना भी तो कैसा रोचक है कि एक ही समय पर इस दुनिया में सभ्यता और विकास का एक लम्बा continuum मौजूद है और इस पैमाने पर कुछ दूर दूर रहने वाले लोग तो एक दूसरे से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। क्या ये बात मनोरंजक और रोमांचक दोनों ही नहीं है कि हमारी पीढ़ी के जानने समझने के लिये मानव जीवन के कई सजीव रंग रूप अभी इस धरती पर उपलब्ध हैं?


किन्तु उपलब्ध तो ऐसे कितनी ही वस्तुएं हैं और हमारी उपेक्षा की शिकार हैं। फ़िर सभी इतने भाग्यशाली कहाँ होते हैं उन्हें ये सब किताबी सी लगने वाली बातें स्वंय अनुभव करने मिले। गाँव और शहर, इस कॉन्ट्रास्ट (contrast) के एक बहुत छोटे स्तर का, लेकिन बहुत स्पष्ट और नज़दीकी उदहरण है। एक तरफ़ जहाँ ये बात अचम्भित करती हैं वहीं चिन्तित भी कि क्यों कुछ लोग तो मूलभूत आवश्यकताओं से आगे कुछ सोच ही नहीं पाते और दूसरी तरफ़ जिन्हें इन ज़रूरतों के बारे में सोचने की ज़रुरत ही नहीं, उन्हें तो इतना कुछ हासिल करना है कि उनका जीवन ज़्यादा संघर्षमय जान पड़ता है। केवल ये देखना कभी काफ़ी नहीं होता कि लोग कहाँ पहुँचे हैं, ये जानना बहुत ज़रूरी है कि शुरुआत कहाँ से की गयी थी। निसंदेह, कुछ लोगों को अधिक मेहनत और कुछ को कम मेहनत लगती है एक सी स्तिथि तक पहुँचने में। वैसे ज़्यादा मेहनत अन्त में ज़्यादा संतोष और प्रसन्न्ता भी देती है और ‘अनुभव’, एक बहुत उपयोगी चीज़ है लेकिन, कभी कभी ये व्यक्ति का मूल्यवान समय और ऊर्जा नष्ट करती है और कई महत्वपूर्ण अवसरों को निगल लेती है। इस असमानता का कारण चाहे जो भी हो, हमारा दायित्व है कि हम अकेले ही आगे ना बढ़े, हम बढ़ भी नहीं पायेंगे।

पहले दो पार्ट लिखकर मैंने सोचा था कि काफ़ी बातें कह दी है अपने गाँव के बारे में, इससे ज़्यादा जानने में भला किसी को क्या दिलचस्पी होगी। लेकिन फ़िर दिलचस्पी भी और उससे कहीं अधिक इन बातों को कहने की मेरी ज़रूरत मुझे दिखायी दी। अब हर बात एकदम शुरु से कह देने की इच्छा होती है। मेरे गाँव ने समय समय पर जो इतनी अलग अलग भावनांए मेरे मन में जागृत की हैं उन्हें मन में ही रहने देने का क्या लाभ, सब जानें तो शायद कुछ लाभ हो। शायद अलग अलग तरह के लोगों को करीब ला सकूँ या किसी तरह ये बढ़ती दूरियाँ कम हों जायें, मानव, प्रकृति और प्रगति के बीच की।

पहले जब गाँव जाती थी (दस ग्यारह बरस की उम्र तक), तब ऐसे विचार मन में उमड़ते घुमड़ते नहीं थे, अपने घर घूमने जाती थी, अपनों के बीच रहने का आनंद लेने जाती थी। बस इतना सोचती थी कि कुछ दिन इस तय दिनचर्या से छुटकारा मिलेगा और चाहे कुछ दिन ही, पर गाँव का कठोर जीवन जीकर देखने का चुनौतीपूर्ण अनुभव भी। सही और गलत का निर्णय करने नहीं जाती थी। राख से मांझे हुए बर्तनों में चाहे पानी साफ़ ना दिखता हो, तेज़ मिर्च वाली सब्ज़ी पेट को suit ना करती हो, इस सब को एक रोमांचक और अलग ज़िन्दगी जीने का अवसर समझती। मज़ेदार लगता था ये कि बच्चे कितनी भी देर से स्कूल जा सकते हैं और कुछ भी पहनकर। आधी छुट्टी (lunch break) में खाना खाने घर आते हैं और वापिस स्कूल जाने की कोई अनिवार्यता नहीं। कई कक्षाएं एक ही कमरे में हो तो कितना मज़ा आता होता होगा सीनियर्स जूनियर्स को एकसाथ बैठने में। कैसा प्यारा जीवन है इनका, आगे बढ़ने की कोई जल्दी नहीं और कोई प्रतियोगिता नहीं। कैसे हो प्रतियोगिता, इनमें से किसी को भी तो किताब पढ़ना नहीं आता और साल के अंत में परीक्षा में सब उत्तीर्ण।


पहले धीरे धीरे और फ़िर तेज़ी से ये सब समझ आने लगा और मैं उलझने लगी। ये हिसाब किताब करने लगी कि ये मुझे आरामदायक दिख रहा ये बचपन वास्तव में कहाँ ले जा रहा है इन बच्चों को। होगी आज़ादी इनके पास मुझसे ज़्यादा पर ये ऐसी कितनी ही चीज़ों से वंचित हैं जो मुझे सहज प्राप्त हैं। फ़िर इनके माता पिता पर मुझे खूब गुस्सा आता, मेरे मम्मी पापा से ये कुछ सीखते क्यों नहीं? वे भी तो यहीं पले बढ़े, पर अब मुझे पढ़ा रहें हैं ना अच्छी तरह, माना सब बच्चे मेरी तरह अच्छे बच्चे नहीं होते, पर उन्हें सही राह दिखाना तो माँ बाप का ही काम है! लेकिन तब मेरी कौन सुनता, इसलिये मैं अपने हमउम्र बच्चों को ही शहर की लच्छेदार कहाँनियां सुनाती और महत्वाकांक्षा का बीज उनके मन में बोने का प्रयास करती, उन्हें बताती कि सिर्फ़ पढ़ने से ही ये सब संभव होता है। वे सब ध्यान से सुनते भी पर फ़िर लग जाते अपने कामों में मानों मैं सिर्फ़ उनका मनोरंजन करने के लिये वहाँ थी। खैर, मुझे तो आदत थी, शहर में भी मेरी कौन सुनता था जब मैं उन्हें अधिक संवेदनशील बनाने के लिये गाँवों की कहानियाँ सुनाती थी। पर हमेशा से ही मैं हर बात में कोई सुख ढूँढ लेती और लोगों के ‘विचार बदलने’ के अपने प्रयास कभी नहीं छोड़ती।

शुरु से शुरु करने की यही उलझन है, एक बार में बात पूरी नहीं होती… इसलिये और क्या क्या अच्छी-बुरी बातें मैंने अपने गाँव में जानी और समझी, पार्ट 4 में कहूँगी।


Wednesday, April 03, 2013

अपना गाँव… पार्ट 2


पिछ्ली पोस्ट अपना गाँव… पार्ट 1 से जारी…

क्या मैं ये कह रही थी गाँव मुझे बेहद पसंद है? मैंने गौर किया, थोड़ी उम्र भी बढ़ी तो ज़्यादा बातें समझ में आयीं कि मुझे असल में प्यारा तो है अपनों का साथ, सिर पर बुजुर्गों का हाथ, प्रकृति का विशाल आँचल और जीवन की सरलता। परन्तु गाँवों में केवल यही सब होता तो कोई अपने घर से दूर क्यों रहता? 

यहाँ और भी बहुत कुछ है और बहुत कुछ नहीं है। बिल्कुल शुरु से शुरु किया जाये तो आज भी गाँवों में मूलभूत सुविधाँए नहीं होती। फोन के ज़रिये इन्टरनेट बेशक मौजूद है पर शौचालय यहाँ नहीं हैं। कुछेक पक्के मकान जो बने हैं वहाँ भी  शौचालय सबसे आखिर में बनने वाली चीज़ होती है। बात यहाँ बस एक निर्माण या गरीबी की नहीं, सोच और प्राथमिकताओं की है। इस सोच की बुनियाद बहुत गहरी है और इसके मूल में ही त्रुटि है। यहाँ बच्चों की शिक्षा और महिलाओं के सम्मान की बात सबसे अन्त में आती है, जहाँ तक बातें कभी पहुँचती ही नहीं। यहाँ औरतें एक हाथ लम्बे घूँघट में ज़रूर रहती हैं पर नहाना उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा दो फ़ीट ऊँची दीवार के पीछे ही होता है।


क्या जीवन को इतना सरल भी होना चाहिये? बस कमाना, खाना, ब्याह करना (बाल विवाह), बच्चे पैदा करना और जितना जल्दी हो सके उनकी शादी करना ताकि ज़्यादा से ज़्यादा पीढ़ियाँ देखकर वे स्वर्ग जा सके। लोगों के मन की सरलता ज़रूर आपको प्रभावित कर सकती है लेकिन यही सरलता या कहिये मूर्खता जब व्यक्ति और समाज की प्रगति में बाधक बने तो खीज उत्पन्न लगती है। तस्वीर का ये दूसरा पर बहुत तकलीफ़देह पहलू है। ध्यान देने पर पता चलता है कि भाइयों में अगाध प्रेम जैसा भी यहाँ कुछ नहीं है। वो तो बहनों ने अभी अपने अधिकार मांगने शुरु नहीं किये नहीं तो उन्हें भी आँख के तारे से आँख की किरकिरी बनते देर नहीं लगती।

अपने 'तन्मय' में तन्मय मेरी ममेरी बहन
दीदी ने तय किया है कि अपने 
शराबी और impotent पति के पास 
अब दुबारा नहीं जायेंगी
बेटियाँ शादी के बाद अपनी किस्मत की स्वंय उत्तरदायी होती है ऐसा अधिकतर माता पिता का विचार है। पढ़ लिखकर लोग बिगड़ जाते हैं, माँ बाप से दूर हो जाते है, बहुंए ज़्यादा बोलती है और बेटियों को योग्य वर नहीं मिलते, जो मिलते है उन्हें अधिक दहेज देना पड़ता है। ये गरीबी तो जैसे एक comfort zone है। पैसे का उपयोग शादियाँ करने, रीति रिवाज़, रिश्तेदारी निभाने और लेन देन में अधिक होता है, आखिर समाज में इज्जत भी बड़ी ज़रूरी चीज़ है। दहेज की ही कृपा से टीवी, फ़्रिज, कूलर, मोटरसाइकिल जैसी सभी चीज़ें इन कच्चे घरों में प्रवेश पाती है पर उनका उपयोग क्या है? सम्पन्नता और शाँति घर में तब ज़रूर आती जब बेटी शिक्षित और परिपक्व होती। किन्तु आधे पढ़े लिखे कम उम्र के पति का frustration सहने के लिये तो खूब दहेज के साथ अनपढ़ बहु ही अच्छी होगी न। तब बड़ी आसानी से लड़का अपनी फ़ूटी किस्मत का ठीकरा अपनी ‘गँवार’ पत्नी (मानो ब्याह करके उसके बड़े भाग खुल गये) और अपने ही अनदेखे किये हुए बेकसूर बच्चों के सिर फ़ोड़ सकता है। विश्वास नहीं होता जब पता चलता है कि मुझे बचपन से इतना दुलार करने वाले और मुझसे इतने अच्छे से पेश आने वाले मेरे भाइयों का भी अपनी पत्नियों के प्रति तो बर्ताव कुछ ऐसा ही है।

घरेलु हिंसा के चलते मेरी बहन की
इस नन्हीं बच्ची ने भी चोट खाई है।
इस सबके बावजूद लोगों की जीवटता देखकर आश्च्रर्य ज़रूर होता है पर लड़कियों को समय से पूर्व अपनी चंचलता नष्ट करते देखना और ढेर सारे बच्चों की बेकद्री होते देखना फ़िर भी सहन नहीं किया जा सकता। जिन प्यारी और सुन्दर बहनों के साथ इतनी मस्ती की बचपन में, उन्हें उनकी शादी के कुछ साल बाद पहचानना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। और अपने दर्जनों भतीजे भतीजियों के नाम याद रखना और मुश्किल काम है जबकि सबकी उम्र एक सी हो, एक जैसे बदहाल दिखते हों और उनमें से कुछ रोज़ स्कूल जाकर भी कुछ खास अलग नहीं दिखते हों। थोड़ी जान पहचान होने के बाद जब उनमें से कोई गोद में आकर बैठता है तो प्यार के साथ साथ बहुत से सवाल भी मन में उमड़ते हैं। साथ ही यह संकल्प भी जागता है कि केवल शिक्षा से ही इनके दिन फ़िर सकते है। कभी कभी यूँ भी लगता है कि इनसे इतना करीबी रिश्ता नहीं होता तो भी क्या मन इतना ही विचलित होता?

गाँव जाते हुए मन में खूब प्रेम उमड़ता है सुनहरे खेत देखकर, नदियाँ देखकर और आश्चर्य होता है कि यहाँ की धूप कैसे अराम से सहन हो जती है और कैसे यहाँ पैदल चलना भी बिल्कुल नहीं थकाता। गाँव से लौटते हुए, वहाँ की समस्याओं के इतने पास रहकर वापस आते हुए दिल उदास हो जाता है। लेकिन हम यूँ ही घर नहीं आ जाते, मम्मी पापा और अब मैं भी अपनी उम्र के लोगों के कान भरकर ज़रूर आती हूँ (in a good way)गहरी पुरानी मानसिकता और आदतों को बदलना मुश्किल तो है लेकिन ज़रूरी भी। व्यक्ति को अगर पता हो जीवन इससे बेहतर हो सकता है तो वह स्वंय चाहे समझौते करता रहे पर अपने बच्चों को ये बेहतर जीवन दिलाने का प्रयास वह ज़रूर करना चाहता है, इसी को समझकर लोगों के मन में एक आशा, एक संकल्प जगाया जा सकता है। अगर बदलाव की जरूरत समझा दिया जाये और स्वाभिमान को जगा दिया जाए तो बाकि सब अपने आप होगा।

गाँव से अपने छोटे से परिवार के साथ अजमेर अपने घर लौटते हुए, ट्रेन जैसे जैसे आगे बढ़ती है, मैं बदलने लगती हूँ, अपने आप ही। ढेरों काम याद आने लगते है और गाँव पीछे छूटने लगता है। घर लौटकर यहाँ मन लगने में थोड़ा वक्त तो लगता है पर कुछ ही दिनों में शहरी रफ़्तार में उलझकर सब भूल जाते हैं। ये ज़िन्दगी ज़्यादा अपनी लगती है और अपना घर सबसे प्यारा। चूल्हे की रोटी का स्वाद बिसरने लगती हूँ। वक्त मिलने पर और अपनेपन की कमी पड़ने पर ही फ़िर मन में गहरी बसी गाँव की छवि और महक को टटोला जाता है। दूर रहकर वहाँ की वही बातें ज़्यादा याद आती हैं जो मुझे पसंद है, कानों में ट्रेन की आवाज़ सुनाई देती है और मन पलभर में जीवन्त और सुन्दर गाँव में पहुँच जाता है, बहनों के ठहाकों, भाभियों की ठिठोली और बड़ों की हिदायतों के सिवा जहाँ सिर्फ़ प्रकृति का संगीत सुनाई देता है। मिट्टी की महक और पेड़ों की छाँव महसूस होने लगती है और बड़े से परिवार की खिलखिलाती हुई तस्वीर नज़र आती है। अपना गाँव अपना ही होता है।


कुछ और बातें अपने गाँव की, पार्ट 3 में…

Monday, April 01, 2013

अपना गाँव… पार्ट 1


दादाजी का घर, ज़ैपला
गाँवों के बारे में, आप किताबों में पढ़ते हैं, लोगों से सुनते हैं और दोस्तों के गाँव जाते भी हैं, लेकिन वो एहसास बहुत ही अलग और सुन्दर होता है जब आपका अपना एक गाँव हो, जहाँ आपके अपने लोग रहते हो और जहाँ की हर चीज़ से आपको कोई बहुत गहरा रिश्ता महसूस होता हो। फ़िर चाहे अपनी ज़िन्दगी का एक छोटा सा हिस्सा भी आपने वहाँ गुज़ारा ना हो, फ़िर चाहे वहाँ 4 दिन रहने में ही आपको शहरी सुख सुविधाओं की ज़ोरदार याद सताने लगे पर वो जो feeling of belongingness है, उसी की खातिर आप वहाँ बार बार जाना चाहते हैं। जहाँ से दूर रहकर भी आप अच्छी तरह समझते हैं कि वहाँ चीज़ें कैसे काम करती हैं, जहाँ के अभाव और गन्दगी देखकर आपको घिन्न नहीं आती, बल्कि तकलीफ़ होती है।

प्यारी नानीजी, अपने पीहर हमीरपुर में
राजस्थान के बाराँ जिले के दो पड़ोसी गाँवों से मेरा सम्बन्ध है। जैपला (मेरा जन्मस्थान), जहाँ दादाजी दादीजी रहते हैं और गेहूँखेड़ी, जहाँ नानीजी का घर है। सप्ताहभर पहले ही वहाँ जाकर आयी, पूरे चार साल बाद, पूरे तीन दिन के लिये एक अतिरिक्त दिन मम्मी का ननिहाल देखने के लिये, जो पार्वती नदी (just wow! अब समझी, मेरी मम्मी का नाम भी ये क्यों है!) के पार मध्यप्रदेश के एक गाँव हमीरपुर में है, वहाँ जैसे मैंने नानीजी का भी बचपन देखा और मम्मी पर लुटते दुलार की भी कल्पना की। बचपन से मैं हर साल, गर्मियों की छुट्टियों का इन्तज़ार ट्रेन में बैठने और गाँव जाने के लिये ही किया करती थी। गाँव मेरे लिये रोमांच का दूसरा नाम था, एक तरह से अब भी है। लेकिन कुछ चीज़ें जो पहले होती थी, वो जाने कैसे अब सिर्फ़ याद करने और मुस्कुराने की वजह बनकर रह गयीं।  

दादाजी-दादीजी, मम्मी-पापा और मैं

बहुत लम्बी है ये सूची, पर करूँ क्या, मुझे बहुत प्यारी है। परवाह भरी डाँट खाते हुए नीम के पेड़ पर चढ़ने की कोशिशें करना; आँगन के कपास के पेड़ से ज़रा सी रुई निकालना और उसमें उसके एक दिन कपड़ा बनने तक का सपना ढूँढ्ना; खेत जाने के मौके ढूँढना (वो जो बैठने की जगह होती है वहाँ झोपड़ी जैसी, डॉल हॉउस से कम होती है क्या?); अपने खेत के आम के पेड़ से अधपके आम तोड़ना (दरअसल भाई बहनों से तुड़वाना।), अपने जैसी छोटी सी चरी लेकर हैंडपम्प से पानी भरने चल देना, प्रॉपर खाना छोड़कर कच्ची पक्की सब चीज़ें खाना, फ़िर पेट दुखाते बैठना और नानीजी को परेशान करना; प्याज़ के नीचे तीलियों की चार टांगें लगा उसका बकरा बनाना, पत्थर के भगवान के आगे उसकी गर्दन उड़ाना और फ़िर रोटी के साथ खा जाना (और शाकाहारी हूँ मैं!); धूप और धूल से परेशान होकर थोड़े नखरे करना और हंसी का पात्र भी बनना; कपड़े के गुड्डे गुड़ियाँ बनाना सीखना; बैलगाड़ी में जुते बैलों के बोझ की परवाह करना; थोड़ी मनघड़ंत किस्से सुनाकर अपने भाई बहनों के अचंभित चेहरों का आनंद लेना; दादाजी से कहानियाँ सुनना, उन्हें गाते हुए सुनना, घरेलु प्रयोग के लिए रस्सी बनाते देखना और जब नानाजी के पास जाना तो हल्की फ़ुल्की बातें करके सोचना थोड़ी तबियत ठीक होगी तब पता चलेंगी गहरी बातें! (चेहरे पर जितनी ज़्यादा झुर्रियाँ हों न, ज्ञान का उतना ही विशाल खज़ाना प्राप्त होने की संभावनांए रहती है)।

दादीजी के घर सबसे छोटी पोती और नानीजी के यहाँ इकलौती नातिन होने और शुरु से ही सबसे दूर रहने के कारण मुझे दोनों जगह ‘अतिरिक्त’ भाव मिलता है (जो पास रहने पर शायद नहीं मिलता! यहीं पली बढ़ी बेटियों की ज़िन्दगी को देखकर ही कहती हूँ)

दादाजी-दादीजी, जैपला
बड़े मामाजी का घर, गेहूँखेड़ी

 
हमीरपुर में
                   
गेहूँखेड़ी में
पार्वती नदी के किनारे 

मम्मी तब हमेशा कहती थी, ‘घर में ही रहना और अकेले मत निकल जाना गाँव में…’ और मुझे गाँव के बीच का हिस्सा बड़ी रहस्यमयी सी जगह लगता था लेकिन रहस्य कितने प्यारे हैं मुझे, ये कहने की ज़रूरत है क्या? तब मैं अजनबी नज़रों से घबरा जाती थी और ‘नज़र लगना’ भी कुछ होता है, ये भी मैंने जाना। इस बार भी घर में कदम रखते ही दादाजी ने हम बच्चों को काजल का टीका लगाने को कहा। दादाजी का रवि को गुड मॉर्निंग कहने का अन्दाज़ कुछ यूँ था, ‘अरे वे माछर कब का बाट न्हाळ रिया (अरे वो मच्छर कब से राह देख रहे है), कि रवि उठे तो हम उसे खायें…’ 

हिन्दी मुझे हमेशा से बहुत प्यारी है और अंग्रेज़ी में भी खूब पटर पटर करके धाक जमा लेती हूँ लेकिन गाँव जाकर राजस्थानी का क्षेत्रिय मीठा वाला संस्करण बोलने का मोह मुझसे नहीं छूटता। यहाँ लोगों को ये समझाना कि मैं क्या पढ़ रही हूँ, ज़रा मुश्किल होता है। मैं पढ़ाई के साल गिनती हूँ और बताती हूँ कि 21वीं कक्षा में पढ़ रही हूँ। फ़िर सबके मन में कई सवाल उठते होंगे पर पूछे नहीं जाते। पीएचडी के बारे में बताते हुए जब मैंने दादाजी दादीजी को जलचर पक्षियों (wading birds) के क्षेत्रिय नाम लेकर अपना काम बताया तो दादीजी पहले समझी, उन्होंने दादाजी को समझाया और फ़िर उन दोनों मुझे इन पक्षियों के भोजन की जानकारी दे डाली। कितना आनंददायक होता है न अपने मम्मी पापा के मम्मी पापा को कुछ समझाना और उनसे बहुत कुछ समझना।

हमारे गाँवों में जब घर में दूध नहीं होता है तो पाउडर वाली चाय बनती है (दादीजी को प्लीज़ मत बताना कि छुप छुपके कोरा दूध पाउडर खाने वाली चटोरी मैं ही थी)। दादीज़ी के घर हों या नानीजी के, सुबह सुबह कम से कम तीन कप चाय तो पीनी ही पड़ती है कि कहीं कोई ताईजी बुरा ना मान जाएं या कोई मामीजी, इसलिये सबके घर चाय पियो। अरे, ऐसी कितनी ही अनोखी बातों को मज़े से जिया और बहुत सम्भाल कर रखा यादों में, जैसे कि पहले ही जानती होऊँ, जाने कब से ये सब time और space में फ़िर कहीं दुबारा देखने को नहीं मिले।  
मम्मी, अपनी मम्मी के साथ

नानाजी अब नहीं हैं और उनका मिट्टी का बना दो मंज़िला घर (ऊपरी तल को हम अट्टा कहते थे और उसकी छोटी संकरी सीढ़ियाँ मुझे बहुत रोमाँचित करती थी), अब खंडहर सी अधूरी दीवारों में बचा है। तीनों मामाजी के घर पास में ही हैं पर वो घर अब कहाँ है जहाँ मैंने अन्तहीन प्रतीक्षा की, नानाजी के अधिक स्वस्थ होने की। उनके लगाए विशाल पेड़ों को छूकर मैंने देखा और जाना कि ये सम्भव है और बिल्कुल झूठ नहीं है कि उनके पाले पोसे हुए पेड़ों से, मैं उनका प्रेम पा सकती हूँ। मम्मी कहती है कि नानाजी उन्हें उनकी कुशाग्र बुद्धि और तीखे स्वभाव के कारण ‘भवानी’ कहते थे, जिनके लिये, दूरदृष्टि का परिचय देते हुए, मेरे पापा जैसा उचित वर उन्होंने ढूँढा (या हाथ से जाने नहीं दिया? खैर, पापा ने भी ‘बाबूजी’ की बेटी को फ़िर हाथ से नहीं जाने दिया।) और फ़िर, एक और ‘भवानी’ पैदा हुई, मैं।




क्या मैं ये कह रही हूँ गाँव मुझे बेहद पसंद है? मैंने गौर किया, थोड़ी उम्र भी बढ़ी तो ज़्यादा बातें समझ में आयीं कि मुझे असल में प्यारा तो है अपनों का साथ, सिर पर बुजुर्गों का हाथ, प्रकृति का विशाल आँचल और जीवन की सरलता। गाँवों में केवल यही सब होता तो कोई अपने घर से दूर क्यों रहता?

कुछ बातें और हैं दिल में, पार्ट 2 में कहूँगी…


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