मेरे मम्मी पापा हमारे खेत में और संध्या का समय |
अपने गाँव की ओर लौटना मन को शान्ति और व्याकुलता से एक साथ
भर देता है। शान्ति देती है ये बात कि आसमान छूकर भी अपनी ज़मीन से हमारा रिश्ता
नहीं टूटा है और व्याकुलता उन सब बातों की जिनके कारण हम सब इस धरती से दूर हो गये
हैं और निरंतर दूर होते जा रहे हैं। अशिक्षा, अधूरी बेकार सुविधाएं, बाल विवाह
और खासकर स्त्रियों को जकड़ी हुई निरर्थक परम्पराएं और मान्यतांए ही है जो
गाँवों को और वहाँ के जीवन को उतना सुंदर नहीं रहने देती जितना उन्हें होना
चाहिये। जबकि प्रकृति के साथ जैसा तालमेल में यहाँ के जीवन में होता है और जितने
कम जंजाल यहाँ होते हैं, उसके अनुसार तो अपने गाँव से बेहतर कोई रहने की जगह हो ही नहीं सकती। लेकिन हम
शहरों में ही बसते हैं, मजबूरी से अधिक ये हमारा चुनाव है, हालाँकि हम किसी को
पीछे नहीं छोड़ना चाहते, किन्तु हम स्वयं भी पीछे नहीं छूटना चाहते।
गाँव जाते हुए ट्रेन की खिड़की से जब पास वाले पेड़ तेज़ी से
भागते, दूर के वन और पहाड़ बहुत धीरे गुज़रते, और बादल और सूरज हमारे संग चलते दिखते
तो मैं इस बात का कोई गहरा मतलब ढूँढने का प्रयास करती। ऐसे छुपे हुए मतलब ढूँढने
की आदत कभी नहीं गयी, बल्कि समय के साथ मैं इसे और अच्छे से करना सीख गयी। इससे
क्या होगा वह एक अलग बात है लेकिन मुझे ये पूरा विश्वास है कि समस्या को ठीक से
समझना ही समाधान की ओर बढ़ता सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम है। कहा भी गया है, “A
problem well defined is problem half solved”।
मूलभूतसुविधाओं और शिक्षा की दयनीय हालत के बाद गाँवों की सबसे गंभीर
समस्या है बाल विवाह। ये बातें सिर्फ़ गाँवों की नहीं है, शहरों के भी कुछ पिछड़े
उपेक्षित हिस्से ऐसे हैं जो बुरी तरह इन बुराइयों में उलझे हुए हैं लेकिन उन
क्षेत्रों से भी गाँव ही अधिक सम्पन्न हैं, वहाँ खेती है, वे लोग प्रकृति के साथ
चलते हैं, मेहनती हैं और वहाँ अब भी खुली ज़मीन उपलब्ध है। लेकिन बात कहीं की भी
हो, कोई भी बहाना दिया जाए, बुराई कम हो या ज़्यादा, गलत बात गलत ही रहती है।
हमारी संस्कृति में विवाह को बहुत अधिक महत्व दिया गया है और
कुछ लोगों ने इस बात को इतनी गंभीरता से ले लिया है कि लगता है सिर्फ़ शादी ही जीवन
है, माता पिता की इकलौती ज़िम्मेदारी है शादी और सब संकटों को दूर करने की चाबी है
शादी। और जब शादी हो जाये तो उसे बनाए रखने की कोशिशों में अपने आपको झोंकना ही
जैसे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। दो लोगों की शादी करवाकर जैसे परिवार और सारा
समाज जल्द से जल्द पूरी तरह उॠण हो जाना चाहता है। इस पुण्य को प्राप्त
करने की जल्दबाज़ी की ही परिणिती है बाल विवाह।
बालिग होते ही विवाह करना भी मुझे कुछ बहुत उचित नहीं लगता,
क्या अट्ठारहवां जन्मदिन आते ही लड़की मानसिक और शारीरिक रूप से एकदम से परिपक्व हो
जाती है, क्या वह पर्याप्त ज्ञान अर्जित कर चुकी होती है कि आत्मनिर्भर हो सके,
क्या वह आने वाली जिम्मेदारियों को उठाने के योग्य हो जाती है? क्या लड़का तैयार
होता है ये जिम्मेदारियाँ उठाने के लिये, क्या वह 21 की उम्र में अपने करियर में वह
मुकाम हासिल कर चुका होता है जो उसने सोचा था? बहुत से लोगों की पढ़ाई के बीच में
उनकी शादियाँ हो जाती हैं और वे ज़िन्दगीभर या तो “काश” का रोना रोते पाये जाते है
या एक दूसरे को कोसते। नि:संदेह विवाह महत्वपूर्ण है और इसीलिये ये निर्णय बहुत
समझदारी से उचित समय पर लेना और आवश्यक बन जाता है।
अपने चचेरे और ममेरे भाई-बहनों के बाल विवाह होते मैंने देखे हैं और उन्हें ये करने से रोकते रहने के कारण मेरे मम्मी पापा को अपने अपने परिवारों में ‘विलेन’ बनते भी देखा है। अपनों से लड़ना दुनिया की सबसे मुश्किल लड़ाईयों में से सबसे मुश्किल है, (असंभव फ़िर भी नहीं)। अब सोचती हूँ ऐसे परिवेश से आकर भी मैं जितना पढ़ सकी हूँ, उन सब उपलब्धियों के पीछे कैसा छुपा हुआ अनवरत संघर्ष है। और जो 5 सालों की बचत मैंने की है, वो समय अब कैसे बहुत काम आ रहा है, ये महत्व पहले नहीं समझी थी मैं।
खैर, अब बाल विवाह के बारे में। विवाह पहले ही
इतना रंग बिरंगा उत्सव है हमारे देश में और बच्चों को तो कोई भी बात बड़ों से अधिक
ही रोमांचित करती है। सुन्दर आभूषणों और वस्त्रों के आकर्षण में, स्वंय का
महत्व बढ़ने की आशा में और आनेवाले प्रेममयी जीवन की कल्पना में, वे नहीं सोचते कि
इन प्रलोभनों के माध्यम से किस प्रपंच में उन्हें फ़ंसाया जा रहा है। और जब वे
ये सब समझते हैं तब वे ये भी सीख चुके होते हैं कि अपने साथ होने वाली हर बुरी बात
की ज़िम्मेदारी कैसे और किन के सर मढ़ी जाए।
गाँव में औसतन 16-17 की उम्र में सभी का विवाह हो चुका
होता है और इसके एकाध साल बाद गौना भी दे दिया जाता है। कुछ लोग ज़िम्मेदारियाँ
पल्ले पड़ते ही पढ़ाई छोड़ देते हैं, तो कुछ को पढ़ाई अचानक महत्वहीन और व्यर्थ लगने
लगती है, और अपना पुत्र धर्म / पुत्री धर्म निभाते हुए वे पढ़ाई का “त्याग”
कर देते हैं। पूरे मनोयोग से वे अपने संघर्षमय जीवन को अपना लेते है और समाज में
बड़ों की इज़्ज़त बचाए रखने के काम में लग जाते हैं। यही आसान राह लगती है उन्हें,
सबको खुश रखना और कुछ हो तो उन्हीं को खुशी खुशी दोष देना, या फ़िर अपने भाग्य को।
वैसे बाल विवाह भी सफ़ल, सुखी होते हैं पर अपवाद स्वरूप, वो भी शायद इसलिये कि लोग
समझौते करने में पारंगत हो जाते हैं, या इसलिये कि वे अपने बच्चों का जीवन सुधारने
को ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं। पर इस तथ्य से भी जल्दी विवाह को बिल्कुल जायज़
नहीं ठहराया जा सकता।
कर्ज़ लेकर बहुत उल्लास के साथ लोग अपने बच्चों की शादी करते
हैं, पर लगभग हर तीसरे बाल विवाह में ऐसा होता है कि शादी के बाद या तो उनका बेटा
बीमार हो जाता है या बहू, फ़िर वे और कर्ज़ लेते हैं लेकिन समझते तब भी नहीं। ऐसा
नहीं भी हो तो लड़की के चेहरे की उड़ी हुई रंगत छिप नहीं सकती, 19 साल की उम्र
में वो दो बच्चों की माँ होती है और फ़िर भी बेटा पैदा करने का भारी दबाव उस पर
होता है। माता पिता की नाक ना कटे इसलिये वह पति की झुंझलाहट को भी अपनी सहन
शक्ति से परे जाकर सहती है। (झुंझलाहट लड़की में भी कम नहीं होती, जो विभिन्न रूपों
में बाहर निकलती है, और एक अच्छी बहू का ढोंग वे बहुत दिन जारी नही नहीं रख पाती।)
मैं गाँव में अपनी एक भाभी के साथ |
मानव का स्वभाव है कि वह हर परिस्तिथि में कोई ना कोई सुख
ढूंढने की कोशिश करता है, और इसलिये ये लोग अपनी बड़ी समस्याओं से ध्यान भटकाने की
खातिर मनोरंजन और आराम के साधन जुटाने लगते हैं और सोचकर खुश होते हैं कि वे आगे
बढ़ रहे हैं, अपने परिवार को खुशियाँ दे रहे हैं। क्यों बच्चों की शिक्षा को ही सबसे
आखिरी प्राथमिकता है? वे इसके जवाब में ज़रूर पैसों का रोना रोयेंगे पर मैं पूछ्ती
हूँ गरीबी है कहाँ? शादियाँ यहाँ भी खूब खर्चीली होती हैं और दहेज की राशि
और सामान देखकर तो किसी की भी आँखें चुंधिया जाएं। गरीबी तो यहाँ केवल सोच में
हैं, गरीबी है हौसलों की। अगर पढ़ लिखकर अपना जीवन संवारने का पर्याप्त समय और
प्रेरणा ही इन्हें मिली होती तो जितनी है उतनी गरीबी भी नहीं होती और ये मानसिक
दिवालियापन भी ना होता।
गाँवों में बाल विवाह को इतना समर्थन यूँ ही नहीं प्राप्त है,
लोगों के पास तर्क भी है। ये बहुत पुरानी सोच उनके अवचेतन मस्तिष्क में गहरे बैठ
चुकी है। एक बहुत चौंकाने वाली बात मुझे अपनी एक कज़िन से पता चली कि जल्दी शादी
करने के पीछे एक ये अन्धविश्वास भी है कि लड़की के मासिक चक्र शुरु होने से पहले
यदि उसका विवाह तय नहीं किया जाता तो उसके परिजनों को “धर्म” नहीं लगता। राहत की
बात ये है कि ये एक बहुत पुरानी मान्यता है और अब धीरे धीरे भुलाई जा रही है।
लेकिन और बहुत बहाने हैं बालविवाह के पक्ष में।
लड़की वाले अक्सर कहते हैं “अच्छा लड़का” मिल गया था
(‘वो भी सस्ते में!’)। ये अच्छा लड़का क्या होता है, मुझे कभी समझ नहीं आया। क्या
आपकी बेटी ‘अच्छी’ नहीं, क्या भविष्य में अच्छा लड़का उसे मिलेगा ही नहीं? हौसलों
की कमर तोड़ने के लिये ज़रा सा अविश्वास ही बहुत होता है, कितना
आसान है ऐसे में अपने आपको किस्मत के हवाले कर देना। लेकिन ये आसान राह कब मुश्किल
हो जाती है, पता भी नहीं चलता।
लोगों को अब भी सच में लगता है कि शादी सभी समस्याओं का हल है, समाज
से व्यभिचार और बलात्कार मिटाने का एकमात्र उपाय है। पर सच क्या
है वह आज की तारीख में किसी को समझाने की ज़रूरत नहीं, ज़रूरत
तो फ़िर से विचार करने की है, आँखें खोलने की है।
कहीं दूर अपवाद स्वरूप अगर किसी लड़के या लड़की ने अपनी आज़ादी का
कोई गलत फ़ायदा उठाया तो कम से कम 10 नौजवानों को उसकी सज़ा मिलती है,
उनसे सारे अवसर छीन लिये जाते है और जल्द से जल्द उनकी शादी हो जाती
है। खासकर अपनी बेटियों की सुरक्षा को लेकर तो हम इतने चिन्तित हैं कि उनके
ज़रा से पर निकलते ही हम उन्हें कतरने लगते हैं। परिवर्तन को सही साबित करने के लिये
ढेरों अच्छे उदाहरण चाहिये होते है और कोई एक मूर्खता भरा कारण ही पर्याप्त होता है
उस परिवर्तन को प्रभावहीन बनाने के लिये। जैसे चार कदम आगे चलते ही दो कदम पीछे
आ जाना।
लड़के के घर में यकायक एक हाथ बँटाने वाली की ज़रूरत पड़ जाती है
या उन्हें अचानक लगने लगता है कि उनकी उमर हो गयी है, कब सबकी शादियाँ हों और कब
वे गंगा नहाएं! । माटी की एक सुन्दर गुड़िया मिलते ही वे शादी कर देते हैं। हालांकि
शादी के बाद नयी ख्वाहिशें पैदा हो जाती हैं। अपने कुटुंब को बढ़ते देखने का
सौभाग्य भी इन्हें चाहिये। जनसंख्या ऐसे ही बढ़ती है, 100 साल के अन्तराल
में सामान्यत: जहाँ अधिकतम 4 पीढ़ियाँ ही होनी चाहिये, कम उम्र में शादी और
जल्दी बच्चे होने से 5 पीढ़ियों को देखने का सौभाग्य लोग ले रहे होते हैं। जिन बच्चों
के लिए इतना तड़पते हैं लोग, उनका लालन पालन कैसे होता है, ये देखकर हृदय के टुकड़े
हो जाते हैं।
"तमन्ना" (मेरी भतीजी) |
लेकिन, लेख की शुरुआत में ही मैंने कहा है, हम कभी हार
नहीं मानते। बहुत धीरे ही सही, पर सोच बदल रही है और नये लोग इस बदलाव की
ज़रूरत को समझ भी रहे हैं।
सचाई को प्रभावी शब्द दिए हैं रश्मि ! पीढ़ियों से रोपी सोच को बदलना आसान नहीं, फिर भी उम्मीद है बदलेगी जरूर.
ReplyDeleteआज की ब्लॉग बुलेटिन तुम मानो न मानो ... सरबजीत शहीद हुआ है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteअच्छा लेख....
ReplyDeleteसुघड़ शैली........
हार मानें हमारे दुश्मन :-)
अनु
आशा तो यही है कि बदलाव आएगा ..... हमारे गाँव बेहतर दशा में होंगें आने वाले समय में ....
ReplyDeleteहम कभी हार नहीं मानते। बहुत धीरे ही सही, पर सोच बदल रही है ... बिल्कुल सही कहा
ReplyDeletebahut hi prabhavshali pravishti privartan ka sookshm vivechan .....aabhar
ReplyDeleteबहुत सुन्दर तरीके से अपनी बात रखी। बधाई!
ReplyDeleteनियमित लिखती रहो। अच्छा है।
WAAH BAHUT KHOOB! Padhte hue thodi rahat bhi mili to bahut se purane jakhm taaze bhi ho gaye. Mann bahut karta hai ki unke liye kuchh karu. aur agar unka sahyog bhi mile, to kaam kitna asaan ho unhe is roodhiyo se ubaarne ka. dhanyavaad beti, likhti raho mera aashirvad hai.
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