गाँव और शहर से मेरा संबन्ध जन्म देने वाली माँ और पालने वाली माँ जैसा है। गाँवों के सौंदर्य का बखान करते रहने वाले हम शहरी-गँवार लोग, वहाँ अधिकतम रह ही कितने दिन सकते हैं? मैं तो बिल्कुल नहीं, ऐसा मेरे सिवाय सभी का, पक्का विश्वास है, गाँव में भी और शहर में भी। पर मुझमें ये सारा विशेष अपनत्व और आकर्षण केवल इसी कल्पना से जागता है कि मेरे मम्मी पापा का बचपन इन गाँवों मे गुज़रा है, और उनके मम्मी पापा का तो सारा जीवन।
मैं कहाँ से आई हूँ, ये जानना मुझे हमेशा से सबसे रोचक लगता
है, तभी तो स्कूल और कॉलेज में भी जैव उद्विकास (Organic Evolution) और
मानव उद्विकास (Evolution of man) ही मेरे सबसे प्रिय विषय
रहे हैं। चौथी से सीधे जब दसवीं कक्षा पढ़ी और पहली बार डार्विन (Darwin), लैमार्क (Lamarck) और लीनियस (Linnaeus) के सिद्धान्त पढ़े तो दीवानी हो गयी थी उनकी। वैसा ही अचम्भा अब मुझे ये
जानकर होता है कि अब तो इतने मिलियन सालों का समय लिये बिना ही हम बहुत तेज़ी se
बदल गये हैं और बदल रहे हैं। ये जानना भी तो कैसा रोचक है कि एक ही
समय पर इस दुनिया में सभ्यता और विकास का एक लम्बा continuum
मौजूद है और इस पैमाने पर कुछ दूर दूर रहने वाले लोग तो एक दूसरे से बिल्कुल
अनभिज्ञ हैं। क्या ये बात मनोरंजक और रोमांचक दोनों ही नहीं है कि हमारी पीढ़ी के
जानने समझने के लिये मानव जीवन के कई सजीव रंग रूप अभी इस धरती पर उपलब्ध हैं?
किन्तु उपलब्ध तो ऐसे कितनी ही वस्तुएं हैं और हमारी उपेक्षा की शिकार हैं। फ़िर सभी इतने भाग्यशाली कहाँ होते हैं उन्हें ये सब किताबी सी लगने वाली बातें स्वंय अनुभव करने मिले। गाँव और शहर, इस कॉन्ट्रास्ट (contrast) के एक बहुत छोटे स्तर का, लेकिन बहुत स्पष्ट और नज़दीकी उदहरण है। एक तरफ़ जहाँ ये बात अचम्भित करती हैं वहीं चिन्तित भी कि क्यों कुछ लोग तो मूलभूत आवश्यकताओं से आगे कुछ सोच ही नहीं पाते और दूसरी तरफ़ जिन्हें इन ज़रूरतों के बारे में सोचने की ज़रुरत ही नहीं, उन्हें तो इतना कुछ हासिल करना है कि उनका जीवन ज़्यादा संघर्षमय जान पड़ता है। केवल ये देखना कभी काफ़ी नहीं होता कि लोग कहाँ पहुँचे हैं, ये जानना बहुत ज़रूरी है कि शुरुआत कहाँ से की गयी थी। निसंदेह, कुछ लोगों को अधिक मेहनत और कुछ को कम मेहनत लगती है एक सी स्तिथि तक पहुँचने में। वैसे ज़्यादा मेहनत अन्त में ज़्यादा संतोष और प्रसन्न्ता भी देती है और ‘अनुभव’, एक बहुत उपयोगी चीज़ है लेकिन, कभी कभी ये व्यक्ति का मूल्यवान समय और ऊर्जा नष्ट करती है और कई महत्वपूर्ण अवसरों को निगल लेती है। इस असमानता का कारण चाहे जो भी हो, हमारा दायित्व है कि हम अकेले ही आगे ना बढ़े, हम बढ़ भी नहीं पायेंगे।
पहले दो पार्ट लिखकर मैंने सोचा था कि काफ़ी बातें कह दी है
अपने गाँव के बारे में, इससे ज़्यादा जानने में भला किसी को क्या दिलचस्पी होगी। लेकिन
फ़िर दिलचस्पी भी और उससे कहीं अधिक इन बातों को कहने की मेरी ज़रूरत मुझे दिखायी दी।
अब हर बात एकदम शुरु से कह देने की इच्छा होती है। मेरे गाँव ने समय समय पर जो
इतनी अलग अलग भावनांए मेरे मन में जागृत की हैं उन्हें मन में ही रहने देने का
क्या लाभ, सब जानें तो शायद कुछ लाभ हो। शायद अलग अलग तरह के लोगों को करीब ला
सकूँ या किसी तरह ये बढ़ती दूरियाँ कम हों जायें, मानव, प्रकृति और प्रगति के बीच की।
पहले जब गाँव जाती थी (दस ग्यारह बरस की उम्र तक), तब ऐसे विचार
मन में उमड़ते घुमड़ते नहीं थे, अपने घर घूमने जाती थी, अपनों के बीच रहने का आनंद लेने जाती थी। बस इतना सोचती थी कि कुछ दिन इस तय
दिनचर्या से छुटकारा मिलेगा और चाहे कुछ दिन ही, पर गाँव का कठोर
जीवन जीकर देखने का चुनौतीपूर्ण अनुभव भी। सही और गलत का निर्णय करने नहीं जाती थी।
राख से मांझे हुए बर्तनों में चाहे पानी साफ़ ना दिखता हो, तेज़
मिर्च वाली सब्ज़ी पेट को suit ना करती हो, इस सब को एक
रोमांचक और अलग ज़िन्दगी जीने का अवसर समझती। मज़ेदार लगता था ये कि बच्चे कितनी भी
देर से स्कूल जा सकते हैं और कुछ भी पहनकर। आधी छुट्टी (lunch break) में खाना खाने घर आते हैं और वापिस स्कूल जाने की कोई अनिवार्यता नहीं।
कई कक्षाएं एक ही कमरे में हो तो कितना मज़ा आता होता होगा सीनियर्स जूनियर्स को
एकसाथ बैठने में। कैसा प्यारा जीवन है इनका, आगे बढ़ने की कोई जल्दी नहीं और कोई
प्रतियोगिता नहीं। कैसे हो प्रतियोगिता, इनमें से किसी को भी तो किताब पढ़ना नहीं आता
और साल के अंत में परीक्षा में सब उत्तीर्ण।
पहले धीरे धीरे और फ़िर तेज़ी से ये सब समझ आने लगा और मैं
उलझने लगी। ये हिसाब किताब करने लगी कि ये मुझे आरामदायक दिख रहा ये बचपन वास्तव
में कहाँ ले जा रहा है इन बच्चों को। होगी आज़ादी इनके पास मुझसे ज़्यादा पर ये ऐसी
कितनी ही चीज़ों से वंचित हैं जो मुझे सहज प्राप्त हैं। फ़िर इनके माता पिता पर मुझे
खूब गुस्सा आता, मेरे मम्मी पापा से ये कुछ सीखते क्यों नहीं? वे भी तो यहीं पले
बढ़े, पर अब मुझे पढ़ा रहें हैं ना अच्छी तरह, माना सब बच्चे मेरी तरह अच्छे बच्चे
नहीं होते, पर उन्हें सही राह दिखाना तो माँ बाप का ही काम है! लेकिन तब मेरी कौन
सुनता, इसलिये मैं अपने हमउम्र बच्चों को ही शहर की लच्छेदार कहाँनियां सुनाती और
महत्वाकांक्षा का बीज उनके मन में बोने का प्रयास करती, उन्हें बताती कि सिर्फ़
पढ़ने से ही ये सब संभव होता है। वे सब ध्यान से सुनते भी पर फ़िर लग जाते अपने
कामों में मानों मैं सिर्फ़ उनका मनोरंजन करने के लिये वहाँ थी। खैर, मुझे तो आदत
थी, शहर में भी मेरी कौन सुनता था जब मैं उन्हें अधिक संवेदनशील बनाने के लिये
गाँवों की कहानियाँ सुनाती थी। पर हमेशा से ही मैं हर बात में कोई सुख ढूँढ लेती और
लोगों के ‘विचार बदलने’ के अपने प्रयास कभी नहीं छोड़ती।
शुरु से शुरु करने की यही उलझन है, एक बार में बात पूरी नहीं होती… इसलिये और क्या क्या अच्छी-बुरी बातें मैंने अपने गाँव में जानी और समझी, पार्ट 4 में कहूँगी।