मेरा मन उचट गया है त्यौहारों से… मेरे कान फ़ट चुके हैं सवेरे से लाउड वाहियत गाने सुनकर और फ़ुर्र हो चुका है गर्व। ये कौनसा रंग है मेरे देश का? बिल्कुल ऐसा ही गणपति विसर्जन के दिन भी महसूस किया था मैंने। जब बचते बचाते गाड़ी चलाते हुए भी करीब एक किलो सा गुलाल मेरे चेहरे पर आकर पड़ा था और स्कार्फ़, चश्मे और हेल्मेट से ढके होने के बावजूद भी आँखों, नाक और गले में जा घुसा था…आँखें तो आँसुओं से धुल गयी थी लेकिन मन तक पहुँच चुकी कड़वाहट नहीं गयी।
मुझे तो कोई उत्साह कोई खुशी कोई उम्मीद नहीं है इन 'रंगीले' त्यौहारों से। ना मुझे आस्तिक होने का कोई सर्टीफ़िकेट चाहिये… मेरे लिये आस्था वो है जब अपने ही उन्माद में धुत्त होने के बजाए सभी की सुविधाओं का खयाल रखा जाए… एक दूसरे की मदद की जाए… प्यार और संवेदनशीलता दिखायी जाए। बताइये, क्या ऐसे खुश होते हैं भगवान?
इस पर हिन्दू धर्म के कुछ ठेकेदार कहते हैं कि होली पूरे मन से खेलें… भारतीय संस्कृति की रक्षा करें और खूब पानी बर्बाद करें, चाहे देश के किसी कोने में लोग पीने के पानी को तरस ही क्यों ना रहें हों।
बचपन से जो छवि थी मन में त्यौहारों की… अब जाने कहाँ है… त्यौहार का वैसा ही निश्छल प्रेम भरा स्वरूप कहाँ है? पकवानों की खुशबू और अपनों से मिलने, आशिर्वाद लेने का अवसर होते हैं न त्यौहार तो? अपराधिक प्रवृतियों को कैसे अवसर मिल जाता है? और कहाँ से आये हैं ये लोग? क्यों नहीं आपत्ति दर्ज़ कराते हम त्यौहारों के नाम पर होने वाले हर आपत्तिजनक व्यवहार पर? क्या मतलब है इस बात का कि आज तो त्यौहार है आज कर लेने दो मन की? बड़ों का इतना भी फ़र्ज़ नहीं कि कम से कम अपने बच्चों को समझा दें कि पड़ोस में कोई बीमार हो सकता है, किसी की परीक्षा हो सकती है या नाईट ड्यूटी, ज़रा सा वॉल्यूम तो कम कर लो। और ज़रूरत क्या है गली गली हर बार होलिका जलाने की? "बुराई" को अपने मन में जलांए… प्रदूषण से पृथ्वी को ना झुलसाएं ना सदियों पहले जलाई गयी एक औरत के दहन पर खुशी से पागल हो जाएं!
मैं सिर्फ़ अच्छे स्वास्थ की कामना करती हूँ इस त्यौहार पर…स्वस्थ मानसिकता की… स्वच्छ पर्यावरण की।